SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 591
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यानादि अधिकार यत्र खावति पुत्रस्य जनन्यपि कलेवरम् । तत्तत्रामुत्र वा बंधों शत्रुत्वे कोऽस्ति विस्मयः ।। १८६५ ॥ बंधू रिपू रिपुबंधुर्जायते कार्यतस्ततः । यतो रिपुत्वबंधुत्वे संसारे न निसर्गतः ॥ १८६६॥ वक्रेण विमलाहेतोः सुदृष्टिविनिपातितः । निजांगनांगजो भूत्वा जातो जातिस्मरो बस ।।१८६७॥ [ ५५१ करते हैं । किन्तु आयु समाप्त होते ही यहां मनुष्य भवमें माता के गर्भ में आना पड़ता है । अतः ज्ञानीजन संसारके किसी भी पदार्थ पर स्नेह नहीं करते । जहाँपर माता भी पुत्रके शरीरको खा जाती है वहां बंधु आदि शत्रु बने उसमें क्या आश्चर्य है ? अर्थात् इस लोकके बंधु परलोक में शत्रु बने इसमें क्या प्राश्चयं है ।। १८९५ ।। संसार में अपने कार्यवश बंधुजन भी शत्रु बन जाते हैं और शत्रु भी बंधु बन जाता है अतः शत्रुपना और बंधुपता स्वाभाविक नहीं है ऐसा निश्वयसे जानो ||१८६६।। विमला नामकी स्त्रीके लिये वक्रनामके पुरुषने प्रपने स्वामीको मार डाला था वह मरकर अपनी उसी विमला स्त्रीका पुत्र हुआ, वहां उसको जातिस्मरण हो गया जिससे उसने जान लिया था कि मैं अपने पूर्वकी पत्नोका ही पुत्र हो गया हूँ । हा ! बड़ा खेद है ।। १८६७ । सुदृष्टि सुनारकी कथा उज्जैन में एक सुदृष्टि नामका सुनार था, वह जवाहरात के जेवर बनाने में बड़ा निपुण था, उसकी पत्नी विमला थी वह दुराचारिणी थी अपने घर में रहने वाले विद्यार्थी वसे उसका अनुचित संबंध था । विमलाने एक दिन उस यारसे कहकर अपने पति सुदृष्टि को मरवा डाला । वह मरकर उसी विमलाके गर्भ में आया यथासमय पुत्र हुआ और क्रमश: बड़ा होगया। किसी दिन उस उज्जैन नगरीके राजा प्रजापाल की पट्टदेवी सुप्रभा का मूल्यवान रत्नहार टूट गया । अनेक सुनारोंके पास उसे भेजा गया किन्तु कोई भी उस हारको ठीकसे बना नहीं पाया अन्तमें उसी विमलाके यहां वह हार पहुंचा उसके पुत्रने जैसे ही हारको देखा वैसे उसको जाति स्मरण होगया, उसने हारको तो बना दिया
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy