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मरणकण्डिका
देवो महद्धको मूत्वा पवित्रगुणविग्रहः । गर्भे वसति बीभत्से थिक्संसारमसारकम् ।।१८६४ ।।
नद्यपर्याय में रहना सर्वथा अनुचित है अत: तुम उस कीड़े को मार देना । मुनिराज के कथनानुसार राजा की निश्चित समयपर मृत्यु हो जाती है और वह विष्ठाका कीड़ा बनता है । देवरति उसको देखकर मारना चाहता है किन्तु कीड़ा विष्ठा समूहमें घुस जाता है । अनंतर किसी दिन देवरति किसी ज्ञानी मुनिसे अपने पिताके कीड़ा होना आदिका वृत्तति कहकर पूछता है कि है पूज्यवर ! पिताको इच्छानुसार उनकी इस निद्य पर्याय को नष्ट करने के लिये मैंने प्रयत्न किया किन्तु वह कीड़ा तो विष्ठा में भीतर भीतर घुसता है सो क्या कारण है ? मुनिराजने कहा यह संसारी मोहोप्राणी जहां जिस पर्याय में जाता है वहां उसी में रमता है, यही मोहकी विचित्र लीला है, इस पर्याय बुद्धि के कारण ही आजतक इन जीवोंका कल्याण नहीं हुआ है इत्यादि अनेक प्रकारसे देवरतिको वैराग्यप्रद उपदेश दिया जिससे राजाने भोगोंसे विरक्त हो जिनदोक्षा ग्रहण की।
सुभोग राजाकी कथा समाप्त
यह जीव पवित्र गुण युक्त-मल, मूत्र, पसीना, रक्त आदि मलिन पदार्थों से रहित वैrियिक शरीर वाला तथा अणिमा, महिमा, लघिमा आदि अष्ट महा ऋद्धियोंसे संपन ऐसा वैमानिक देव होकर पुन: वहांकी आयु पूर्ण होने के अनंतर घिनावने गर्भ में जाकर नौ मासतक बसता है । हाय ! धिक् ! इस असार संसारको धिक्कार है धिक्कार है ।। १८९४ ।।
विशेषार्थ भवनवासी, व्यंतर ज्योतिषी और वैमानिक ऐसे देवोंके चार भेद हैं, इनमें आदिके तीन जातिके देवोंसे वैमानिक देवोंके ऋद्धियां अधिक प्रभावशाली हुआ करती हैं। ऋद्धियां आठ हैं- अणिमाऋद्धि- अपने वैऋियिक शरीरको अत्यंत सूक्ष्म बना सकना | महिमा शरीरको बहुत बड़ा बनाना । लघिमा - अर्कतूलवत हल्का शरीर निर्माण कर सकना । गरिमा पर्वत से भी अधिक भारी शरीर बना सकता | प्राप्ति - अपने स्थानपर रहकर हो किसो सुदूरवर्ती स्थानको स्पर्श कर सकना । प्राकाम्यमनचाहा रूप बनाना । ईशत्व - ऐश्वर्यशाली प्रभावशाली होना । वशित्व - सबको वश में रख सकना । देव इन ऋद्धियोंसे संयुक्त तथा और भी अनेक विशेषतानोंसे युक्त हुआ