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________________ ध्यानादि अधिकार संसारे जायते यस्मिन्नपोऽपि खल किंकरः । कोशी क्रियते तत्र रतिनिदानिधानके ॥१८६२॥ विवहाधिपती राजा तेजोरूपकुलाधिकः । जातो तल गहे कोट: मुभोग: पूर्वकर्मभिः ।।१८९३॥ को पत्नो होने से वेश्या मेरी भावज है । (२) तेरे मेरे दोनों के धनदेव पिता हैं और वेश्या उनकी माता है; अतः यह मेरो दादी है । (३) धनदेव को और तेरी भी माता होने से वह मेरी भी माता है । (४) मेरे पति धनदेव को भार्या होने से वह मेरी सौत है । (५) धनदेव मेरी सौत का पुत्र होने से मेरा भो पुत्र कहलाया । उसको होने से वह वेश्या मेरो पुत्रवधू है । (६) मैं धनदेव की स्त्रो हूँ और वह उसको माता है ; अतः वह मेरो सास है । इन अठारह नातों को सुनकर वेश्या धनदेव आदि को भी सब बातें ज्ञात हो जाने से जातिस्मरण हो आया और उन्हें वैराग्य होगया । __जिस संसारमें निश्चयसे राजा भी किंकर हो जाता है उस निंदाके भंडार स्वरूप संसार में रति-प्रेम किसप्रकार किया जाता है ? अर्थात् जो बुद्धिमान है वह संसार में प्रेम नहीं करता ॥१८१२॥ तेज, रूप और कुलसे संपन्न ऐसा विदेह देशका राजा सुभोग पूर्वकर्म के द्वारा विष्ठा घरमें कीड़ा हुप्रा था। जब राजा आदि श्रेष्ठ पुरुषोंकी ऐसी होन अवस्था हो जाती है वहां अन्यकी क्या कथा ! ॥१८६३।। सुभोग राजाकी कथाविदेह देशकी मिथिला नगरीमें राजा सुभोग राज्य करता था, उसकी रानी मनोरमा और पुत्र देवरति था, एक दिन मिथिलाके उद्यान में देवगुरु नामके अवधिज्ञानी आचार्य संघ सहित पाये । राजा उनके दर्शन के लिये गया धर्मोपदेश सुननेके अनंतर राजा ने प्रश्न किया कि मैं आगामी भवमें कौनसी पर्याय धारण करूगा ? मुनिने कहा राजन् ! सुनो पापकर्मोके उदयसे आप बिष्ठामें कीड़ा होवोगे । मुनिराजने मरणकालको निकटता एवं उसके चिह्न भी बताये । राजा उदास हो महल में लौट आया । क्रमशः मृत्युके चिह्न जैसे बताये थे वैसे प्रगट होने लगे जिससे मुनिके वचनों पर पूर्ण विश्वास हुआ । उसने पुत्र देवरति को बुलाकर मुनिके मुखसे सुना हुआ आगामी भवका हाल बताकर कहा कि हे पुत्र ! मैं मरणकर विष्ठागृहमें पंचरंग का कीड़ा होगा। उस
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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