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मरणकटिका देहसल्लेखनाहेतु हया वरिणतं तपः । वदन्ति परमाचाम्लमहता यत्र योगिनः ॥२५७।। षष्टाष्ट्रमादिभिश्चित्ररुपवासरतन्द्रितः । गृह्णाति मितमाहारमाचाम्लं बहुशः पुनः ॥२५८।।
विशेषार्थ-शरीर सल्लेखना का इच्छुक साधु यदि उत्तम संहनन वाला है धैर्य थ तज्ञान आदि गुणोंसे मण्डित है परोष उपसर्ग सहन किये हैं तो वह महासत्त्वशाली मनि इस भिक्षप्रतिमा विधिका अनुष्ठान कर सकता है, इस देश में रहते हुए एक मास के अन्दर अमुक-अमुक दुर्लभ आहार मिलेगा तो ग्रहण करूगा अन्यथा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा करके उस मास के अन्तिम दिन प्रतिमायोग धारण करता है, यह एक प्रतिमा हुई।
पूर्वोक्त आहार से शतगुणित उत्कृष्ट दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहारका व्रत ग्रहण करता है यह व्रत दोमासका तीनका, चार, पाँच, छह और सात मास तक क्रमशः चलता है, प्रत्येक महिने के अन्तिम दिन प्रतिमायोग धारण करता है, ये सात भिक्षु प्रतिमायें हैं।
पुनश्च सात-सात दिनोंमें पूर्व आहारको अपेक्षा से शत गुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहार तीन बार लेने की प्रतिज्ञा करता है. आहार को प्राप्ति होती है तो तोन, दो और एक ग्रास लेता है. ये तीन भिक्षु प्रतिमायें हैं। तदनन्तर रात्रि
और दिन में प्रतिमायोग धारण करता है पुनः प्रतिमायोग से ध्यानस्थ होता है ये दो भिक्षु प्रतिमायें हैं । इससे पहले अवधि और मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त होते हैं, अनन्तर सूर्योदय होने पर उक्त महामना महाधर्यशालो मुनिराज केवलज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं। इस तरह ये बारह भिक्षु प्रतिमायें जिनागममें वर्णित हैं ।
शरीरकी सल्लेखना के लिये विविध तपोंका वर्णन अर्हन्त देवने किया है उन तपोंमें आचाम्ल तप उत्कृष्ट है ऐसा योगिजन कहते हैं ।।२५७।।
बेला, तेला आदि विविध उपवासों द्वारा तप करता हुआ निष्प्रमादी यति ऋमशः अल्प आहार को करता है पुनश्च बहुत प्रकार से आचाम्ल को करता है । अर्थात दो तीन आदि उपवास करे मध्य-मध्य में अल्प आहार-अवमौदर्य करता रहे, फिर आचाम्ल विधि करे ।।२५८।।