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________________ सल्लेखनादि अधिकार क्रमेणसं लिखत्यंगमाहारं स्वयंयन्यतिः । प्रत्यहं वा गृहीतेन तपसा विधिकोविदः ॥२५५॥ आहारगोचरं नाकारैरवग्रहैः 1 मुमुक्षुः संलिखत्यंगं संयमस्याविरोधकम् ॥ २५६॥ या भिक्षु प्रतिमाश्चित्रा बले सति च जीविते । पीडयन्ति न ताः कायं संलिखं तं यथाबलं ॥ ( पाठान्तरं ) [ ८१ विशेषार्थ - बेला तेला चौला इत्यादि रूपसे अनशन करना अनशन तप को वृद्धि है, बत्तीस ग्रास प्रमाण आहार में से क्रमशः ग्रास कम करते रहना इत्यादि रूप अवमोदयं तपकी वृद्धि है, एक रसका, दो रसका त्याग करना, कभी छहों रसोंका त्याग करना, रसत्याग तपकी वृद्धि कहलाती है । आज इस गांव में आहार तो लूंगा, आज इस मोहल्ले में मिलेगा तो लूंगा, आज इस घर में मिलेगा तो लूंगा इत्यादि रूप वृत्तिपरिसंख्यान तपकी वृद्धि जानना । शून्य गृह निवास, पुनः ग्राम समीप वसति में निवास, पुनः गिरि गुफा में निवास इत्यादि रूप विविक्त शय्यासन तपकी वृद्धि होती है । और दिनमें आतपन योग लेकर रात्रिमें प्रतिमावत् निश्चल स्थित रहना इत्यादि रूप कायक्लेश तपकी वृद्धि जानना चाहिये । क्रमसे आहार को घटाते हुए शरीर को घटाता जाय अथवा प्रतिदिन विविधभिन्न-भिन्न प्रकार से तपको करते हुए विधिकोविद तप की विधिको जानने वाला साधु काया को कृश करता है || २५५ || संयम की विराधना न हो इसप्रकार से आहार सम्बन्धी उग्र उग्र ऐसे नाना अवग्रह-नियमों द्वारा मुमुक्षुजन शरीरको कृश करते हैं ।। २५६ ।। यथाशक्ति शरीर सल्लेखना करनेवाले साधुके बल और जोवन के रहने पर अनेक प्रकार की भिक्षु प्रतिमा का आचरण करने पर संक्लेश नहीं होता है और यदि शक्ति के अनुसार तप नहीं किया अधिक तीव्र गति से शरीर कृश किया तो महान् क्लेश होगा और उससे कर्मबन्ध होगा अतः यथाशक्ति तपमें प्रवृत्ति श्रेयस्कर है । ( पाठान्तरकी अपेक्षा )
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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