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मरकण्डिका
मिथ्यादर्शनिनां सौम्यं संवेगो सूयसां सतां । मुक्तः प्रकाशितो मार्गो जिनाशापरिपालिता ।। २५२ ॥ संतोषः संयमो देहलाघवं शमवर्द्धनम् । तपसः क्रियमाणस्य गुणाः सन्ति यथायथम् ।। २५३ ॥
उद्गमोत्पादनाहार दोषभक्त मितं लघु । विरसं गृताहारं क्रियते विविधं तपः ।। ( पाठान्तरम् ) आहारमध्पयन्नेवं वृद्धो वृद्धेन संयतः ।
तपसा संलिखत्यंगं वृद्ध नैकांततोऽथवा ।। २५४ ।।
मुनिराजों का उग्र तप देखकर मिथ्यादृष्टि जीव भी अपनी उग्रता छोड़कर सौम्य बन जाते हैं अर्थात् जैनोंका तप बड़ा दुर्धर है ऐसा देखकर प्रसन्न होते हैं, तपश्चरण में तत्पर इस मुनिको देखकर अन्य मुनिराजों को संसार से भय उत्पन्न होता है कि यह महात्मा संसारके कष्टसे भयभीत होकर मुक्ति के लिये कितना कठोर तप करता है ! हमें भी यह सांसारिक कष्ट भोगना न पड़े इसलिये अवश्य तप करना चाहिये इत्यादि । तपसे मुक्तिमार्ग का प्रकाशन होता है और जिन भगवान की आज्ञाका पालन होता है ||२५२ ।। तपस्वी के जीवन में सन्तोष आता है, संयम आता है, शरीर में लघुता होती है अर्थात् तपसे शरीर का भारीपन मोटापा नष्ट होता है । उपशम भाव वृद्धिंगत होता है । इसप्रकार तप करने वाले के ये गुण यथा सम्भव प्राप्त होते हैं अर्थात् छह प्रकारके सप हैं इनमें से अनशन द्वारा शरीर लघुता, रस त्याग से सन्तोष इत्यादि गुण भी प्रगट होते हैं । इसीप्रकार अन्य अन्य तपके गुण भी समझना चाहिये ।। २५३॥ मुनिराज उद्गम, उत्पादन और एषणा इन दोषों का त्याग करके मित लघु विरस ऐसे आहार को ग्रहण करते हुए विविध बाह्य तपको करते हैं अर्थात् निर्दोष आहार लेकर तप करना चाहिये, उद्दिष्ट आहार आदि छियालीस आहार सम्बन्धो दोष हैं उन दोषों से युक्त अशुद्ध ऐसा आहार करके कदापि तप नहीं करना चाहिये ( पाठान्तर की
अपेक्षा ) ।
इसप्रकार यति आहार को अल्प करता हुआ वृद्धिगत तप द्वारा अर्थात् बेला तेला आदि क्रमसे आगे तपको बढ़ाता है और उससे शरीर कृश करता है, अथवा कभी हीयमान तपसे प्रवृत्ति करता है ।। २५४ ||