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सहलेखनादि अधिकार कालो द्वादशवर्षारिग काले सति महीयसि । भक्तत्यागस्य पूर्णानि प्रकृष्टः कथितो जिनः ॥२५॥ विचित्रः संलिखित्यंगं योगवर्ष चतुष्टयं । समस्त रस मोक्षेण परं वर्ष चतुष्टयं ॥२६०॥ आचाम्ल रसहानिभ्यां वर्षे द्वनयते यतिः । आचाम्लेन विशुद्ध'न वर्षमेकं महामनाः ॥२६१॥ षण्मासीमप्रकृष्टेन प्रकृतेन समाधये । षण्मासौं नयते धीरः कायक्लेशेन शुद्धधीः ।।२६२॥ द्रव्यं क्षेत्र सुधीः कालं धातु ज्ञात्वा तपस्यति । तथा न्यन्ति यो बाशु वातपित्तकफा यथा ॥२६३॥
भावार्थ--आचाम्ल को यहाँ पर कांजिका शब्दसे कहा जाता है, केवल मांड लेना अथवा कुछ भातके कण जिसमें हो ऐसा मांड हो लेना आचाम्ल या कांजिका आहार है ! कोई केवल भातके आहार को आचाम्ल कहते हैं, कोई भात और इमली का पानी लेने को आचाम्ल कहते हैं ।
सल्लेखना का जो भेद भक्तप्रत्याख्यान है उसीका अति विस्तारसे वर्णन चल रहा है, इस भक्तप्रत्याख्यान का काल उत्कृष्ट रूपसे बारह वर्ष प्रमाण जिनेन्द्र देवने कहा है ॥२५६।। बारह वर्ष किस प्रकार व्यतीत करे सो बताते हैं-विविध आतपन प्रादि योग धारण करके चार वर्ष व्यतीत करता है, पुनः समस्त रसोंका त्याग करते हुए चार वर्षोंको पूर्ण करता है ॥२६॥
आचाम्ल तप तथा रस त्याग द्वारा दो वर्ष पूर्ण करता है पुनः एक वर्ष केवल आचाम्ल तप द्वारा व्यतीत करता है ।।२६११। इसप्रकार चार वर्ष उपवास द्वारा, बार वर्ष रस त्याग द्वारा, दो वर्ष आचाम्ल और रस त्याग दोनों द्वारा और एक वर्ष केवल आचाम्ल द्वारा व्यतीत होने पर, शुद्ध बुद्धि वाले वे क्षपक मुनिराज अन्तिम बारहवें वर्ष के प्रथम छह मास तो मध्यम तप द्वारा और द्वितीय छह मास उत्कृष्ट कायक्लोशकारो तप द्वारा व्यतीत करते हैं ।।२६२।।
द्रव्य क्षेत्र काल और धातु-शरीर प्रकृति को जानकर साधु उस प्रकार से तप करता है जिस प्रकार से कि वात पित्त कफ दोष क्षभित न हो ।।२६३।।