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________________ ८४ ] मररकण्डिका इत्थं सल्लेखनामागं कुर्वाणेनाप्यनेकधा । नव त्याज्यात्म संशुद्धिः क्षपकेण पटीयसा ।। २६४ ।। भावशुद्धधा विनोत्कृष्टमपि ये कुर्वते तपः । बहिर्लेश्या न सा तेषां शुद्धि भवति केवला ।। २६५ ।। कषायाकुलचित्तस्य भावशुद्धिः कुतस्तनी । यतस्ततो विधातव्या कषायाणां तनूकृतिः ॥ २६६ ॥ विशेषार्थ -- आहारको यहाँ पर द्रव्य शब्द से कहा है, कोई आहार शाक बहुल होता है, कोई रस बहुल, कोई कुलथो युक्त, निष्पाव चना आदिसे मिश्रित इत्यादि आहार को ज्ञात करना अर्थात् इस देश ग्राम आदिमें रस बहुल आहार प्राप्त होता है। अथवा नहीं, शाक बहुल है इत्यादिको देखकर उपवास आदि तप करें जिससे शरीर शुष्कता या बात आदि दोष कुपित न हो । यह देश जल बहुल है इसमें वर्षा बहुत है, तथा इस क्षेत्र में पानी नहीं है शुष्क प्रदेश है इत्यादि देखकर तप करना चाहिये क्योंकि अनूप देश अर्थात् जल बहुल देश में उपवास ठीक होते हैं । यह ग्रीष्मकाल है, यह शीतकाल है, ग्रीष्मकाल में तपश्चरण कठिन पड़ता इत्यादि काल को जानना । मेरी शरीर प्रकृति कैसी है ? बात प्रधान हैं या कफ प्रधान है इत्यादि विचार करना चाहिये उससे रोग नहीं आते हैं । कषाय सल्लेखना को कहते हैं— इस तरह अनेक प्रकार की तप विधि द्वारा सल्लेखना मार्ग को करते हुए चतुर क्षपक मुनि अपनी आत्म शुद्धि को कभी भी नहीं छोड़े । अर्थात् आरम श्रद्धा, आत्म भावना की सुरक्षा पूर्वक हो तप करना चाहिये ।।२६४।। भावशुद्धि के बिना जो साधुजन उत्कृष्ट भी तप करते हैं उनके आत्मशुद्धि नहीं होती है उनकी वह तपकी क्रिया केवल बाह्य लेश्या मात्र है । अर्थात् ख्याति पूजा और लाभ आदि को इच्छासे तप करना आत्माकी शुद्धिका कारण नहीं है और आत्मशुद्धि बिना कर्म निर्जरा नहीं होती अतः ऐसा तप मोक्षमार्ग में व्यर्थ है ।। २६५ ।। कषायसे आकुलित है चित्त जिसका ऐसे व्यक्ति के भावशुद्धि कहाँसे हो सकती है ? इसलिये कषायों को अवश्य ही कृश करना चाहिये || २६६ ॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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