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सल्लेखनादि अधिकार
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जेतव्या क्षमया कोधो मानो मार्दव सम्पदा । आर्जवेन सदा माया लोभः सन्तोषयोगतः ॥२६७।। चतुर्णा स कषायाणां न वशं याति शुद्धधीः । उत्पत्तिस्त्यज्यते तेषां सर्वदा येन स तस्वत: 1२६॥
दं सर्वदा पत्र, पायग्नि रुवीयते । यत्र शाम्यत्यसौ वस्तु, तदादेयं पटोयसा ॥२६६।। यधुवेति कषायाग्नि, विध्यातव्यस्तदा लघु । शाम्यन्ति खिलादोषा, शमिते तत्र तत्त्वतः ॥२७०॥ रागद्वेषादिक साधोः, संगाभावे विनश्यति । कारणाभावतः कार्य, कि कुत्राप्यवतिष्ठते ।।२७१।।
कषायोंको जीतने का उपाय दिखाते हैं
साधुजनोंको क्षमा द्वारा तो क्रोधको जोतना चाहिये, मानको मार्दव संपत्ति द्वारा, मायाको सदा हो आर्जव धर्म द्वारा एवं संतोष योगसे लोभको जीतना चाहिये ॥२६७।।
जो शुद्ध बुद्धिवाला साधु है वह चारों ही कषायोंके वश में नहीं आता, क्योंकि वह उन कषायोंको उत्पत्ति ही सर्वदा होने नहीं देता ॥२६॥
जहाँपर कषायरूपी अग्नि उत्पन्न होती है उस द्रव्य क्षेत्र आदिको सदा ही छोड़ देना चाहिये और जहाँ पर कषायोंका शमन होता है उस द्रव्यादिको चतुर साधु को ग्रहण करना चाहिये ।।२६६।।
यदि कदाचित कषायरूप अग्नि उत्पन्न भी हो जाय तो शीघ्र ही उसे बुझा देनी चाहिये । क्योंकि कषायोंके शान्त होनेपर शेष दोष बास्तबमें शान्त हो ही जाते हैं ॥२७०।।
परिग्रहके अभावमें साधुके रागद्वेष विनष्ट हो जाते हैं, क्या कारणके अभावमें कार्य होता हुआ कहीं देखा गया है ? नहीं ! मतलब जैसे मिट्टी या कपास रूप कारणके रहने पर घट और पट रूप कार्य उत्पन्न होता है अन्यथा नहीं । इसीप्रकार परिग्रहके अभावमें साधुके रागद्वेष नहीं होते हैं ॥२७॥