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मरणकण्डिका
यदा संक्षिप्यते वाणी व्याधिव्यालविषादिभिः । तदा शुद्धषियः साधोनिरुद्धतममिष्यते ॥२०६५ हरती जीवितं दृष्ट्वा वेदनामनिवारणाम् । जिनादीनां पुरो धोरः करोत्यालोचनां लघु ॥२०६६॥ आराधनाविधिः पूर्व कथितो विस्तरेण यः। अत्रापि युज्यमानोऽसौ द्रष्टव्यः श्रुतपारगः ॥२०६७।।
कारण उपस्थित हुए हैं तो क्रमशः आहारका त्याग करते हुए तथा आलोचना आदिको करते हुए समाधिमरण करते हैं और निरुद्धतर अवीचार भक्त त्यागमें अचानक ही कोई उपसर्ग या भयंकर रोग आदि प्रागये हैं तो शोघ्रतासे जो भी आचार्य आदि निकट होवे उनके पास अपने दोषोंको पालोचना निदा गर्दा करके चतुराहारका त्याग कर शरोरको छोड़ते हैं।
निरुद्धतम या परम निरुद्ध अवीचार भवत प्रत्याख्यानका स्वरूप बतलाते हैं
__ जब व्याधि, क्रूर पशु पक्षियों द्वारा एवं विष आदिके द्वारा वाणी आदिकी शक्ति समाप्त प्रायः होने लगती है तब निर्मल बुद्धिवाले मुनिराजके निरुद्धतम अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरण होता है ॥२०९५।। जिसको रोकना अशक्य है ऐसी भयानक वेदना अपने जीवनको हरण करती देखकर धीर साधु जिनेन्द्र आदिके समक्ष अर्थात् अपने मनमें जिनेन्द्र देवको विराजमान कर शीघ्र ही दोषोंकी आलोचना करता है ॥२०६६।।
जो आराधना विधि पहले विस्तारसे श्रुत पारगामी आचार्यों द्वारा कही गयी है वह विधि इस निरुद्धतर अवीचार भक्त त्यागमें भी होती है ।।२०६७।।
विशेषार्थ-अवीचार और अविचार ऐसे दोनों ही शब्दोंके प्रयोग इस मरणके नाममें देखे जाते हैं । विचार अर्थात् सोचना ! जिस मरण में सोचनेका अधिक अवसर नहीं है, आयु ह्रासके तरफ उन्मुख है ऐसा देखकर यह मरण किया जाता है। वर्षों पहले से तैयारी करना अपना संघ छोड़कर अन्य संघ में प्रवेश करना इत्यादि विषय इस मरण में नहीं होते हैं । इस में मरणको संभावना शीघ्र, शीघ्रतर और शीघ्रतम होती