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________________ [ ६०९ अवोबार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार यावन्न क्षीयते वाणी यावविद्रिय पाटवम् । यावद्धयं बलं चेष्टा हेयादेयविवेचनम् ॥२०१२॥ ताव बनया ज्ञात्वा हियमाणं स्वजीवितम् । आलोचना गुरोः कृत्वा धीरा मुचन्ति विग्रहम् ॥२०६३॥ स्वगणस्यमिति प्राजनिष्तरमोरितम् । अवशेषो विधिस्तस्य शेयः पूर्वत्र वर्शितः ॥२०६४॥ ॥इति निरुद्धतरम् ॥ -. -..-.. -- - - - -- इन जलादिके उपसर्ग उपस्थित होनेपर एवं सन्निपात आदि रोगोंके उपस्थित होनेपर मुनिजन जबतक वाणो-बोलने की शक्ति नष्ट नहीं होती जबतक इन्द्रियों में श्रवण आदि की शक्ति समाप्त नहीं होती, उक्त तीन कष्ट वेदनाके कारण अपना धर्य, बल, चेष्टा नष्ट नहीं होती तथा हेय उपादेयको विचार करनेको बुद्धि समाप्त नहीं होती तबतक ही उक्त वेदना आदिसे अपनी आयु क्षीण होती देखकर घोर बीर मुनिराज गुरुके निकट आलोचना करके शरीरका त्याग कर देते हैं ॥२०६२।।२०६३।। विशेषार्थ---जल प्रवाह द्वारा बहनेका प्रसंग आगया है, कहीं वन में संघ है और अचानक दावाग्नि लग गई या जंगली पशुका आक्रमणका प्रसंग है अकस्मात् तीव्र शूल आदि रोग आ गया इत्यादि मरणके कारण उपस्थित होते देखकर अपनी बोलने की शक्ति, सुनने की शक्ति, सोचने की शक्ति नष्ट होनेके पहले ही महान् मुनिराज जो प्राचार्य या साधु अपने निकट हों उन्हींके समक्ष दीक्षित जीवन में जो जो दोष अपराध हुए हैं उनकी आलोचना करते हैं तथा आहार, उपधि, शय्या आदि त्याग कर शरीरको छोड देते हैं। इसप्रकार अपने संघमें स्थित रहकर जो उक्त मरणके कारणोंके अकस्मात उपस्थित होनेपर सल्लेखना ग्रहणकी जाती है उसे प्राज्ञजन निरुद्धतर अवीचार भक्त त्याग मरण कहते हैं । इस मरणकी शेष विधि पूर्वोक्त विधिके अनुसार है ।।२०६४।। विशेषार्थ-निरुद्ध अवीचार भक्त त्याग और निरुद्धतर अवीचार भक्त त्याग ये दोनों मरण अपने संघ में रहकर ही होते हैं किन्तु निरुद्धमें तो जंघाबल घट जानेसे या अन्य किसी कारणसे परसंघमें जानेको साधु असमर्थ हुए हैं और समाधि-ग्रहणके
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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