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अनुशिष्टि महाधिकार
[ ३६५ प्रसम्मताग्रहः साधोः सम्मतासक्तद्धिता । दीयमानस्य योग्यस्य गृहीतिरुपकारिणः ॥१२६३।। अप्रवेशोऽननुजाते योग्य यांचाविधानतः । तृतीये भावनाः पंच प्राज्ञः प्रोक्ता महावते ।।१२६४॥ -- -- - - . - .. .. -
द्वितीय व्रतकी भावमाहास्य प्रत्याख्यान, लोभ प्रत्याख्यान, भय प्रत्याख्यान और क्रोध प्रत्याख्यान ये चार तथा सूत्रके अनुसार भाषण इसतरह दूसरे सत्यव्रतको पांच भावना हैं ॥१२६२॥
तृतीय व्रतकी भावना__असंमतका अग्रहण, संमतमें अनासक्त बुद्धि दीयमान योग्य वस्तुमें अपने लिये उपकारीका ही ग्रहण, अननुज्ञातमें अप्रवेश और योग्य वस्तुको याचना ये तीसरे अचौर्य महावतकी पांच भावना प्राज्ञ पुरुषों द्वारा कही गयी हैं। इन पांच भावनाओंका विवरण इसप्रकार है-ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदि दूसरे साधुके हैं और अपनेको उनको लेना है तो बिना संमति-इच्छाके नहीं लेना, यह असंमत अग्रहण नामकी पहली भावना है । परकी संमतिसे उन उपकरणोंको ग्रहण करनेपर भी उसमें आसक्ति नहीं करना यह संमतमें अनासक्त बुद्धि नामकी दूसरी भावना है । अन्य साधु द्वारा योग्य वस्तु को जाने पर भी उसमें मेरे लिये यह उपयोगी है या नहीं इस बातका विचार करके यदि उपकारक है अर्थात् अपनेको काममें आनेवाली है केवल उसीको ग्रहण करना अन्यको नहीं, यह दीयमान योग्य वस्तुमें उपकारीका ग्रहण नामकी तीसरी भावना है। जहां पर प्रवेश करनेकी आज्ञा नहीं हो वहांपर बिना आज्ञाके प्रवेश नहीं करना यह अननुज्ञातमें अप्रवेश नामको चौथी भावना है तथा अपने लिये उपयुक्त वस्तुको अन्य साध आदिसे याचना करना यह योग्य वस्तुकी याचना नामकी पांचवी भावना है ।।१२६३॥ ॥१२६४।।
चौथे व्रतकी भावनास्त्रियों का अवलोकन, स्त्रियोंके साथ संभाषण, पूर्वभुक्त भोगकी चिरकाल तक स्मृति, स्त्रियों द्वारा संसगित स्थान पर निवास और बलिष्ठ आहारका सेवन इन पांच