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________________ श्रनुशिष्टि महाधिकार शुद्धलेश्यस्य यस्यान्ते दीप्यते ज्ञानदीपिका । तस्य नाशभयं नास्ति मोक्षमार्गे जिनोदिते ।।७६६॥ ज्ञानोद्योतो महोथोतो व्याघातो नास्य विद्यते । क्षेत्रं द्योतयते सूर्यः स्वस्थं सर्वमसौ पुनः ८०० [ २३७ वेधका अभ्यास हो जाता है तब वह वीर चन्द्रक वेध करनेमें समर्थ हो जाता है । चन्द्रक वेध महल आदि छतपर एक तीव्र वेग से घूमनेवाला चक्र रहता है उसमें एक विशिष्ट चिह्न रहता है जो कि तीव्र गति से चक्र के साथ घूमता है, उस चन्द्रकके ठीक नोचे जलकु'ड जलसे भरा रहता है उस जलमें ऊपरका फिरता हुआ चक्र दिखायी देता है, धनुविद्यावाला वीर पुरुष जलकुडमें चके चिह्नको देखकर हाथोंसे बाण चलाकर उस लक्ष्यको वेध देता है, इसमें देखना नीचे और बाण चलाना ऊपर होता है ऐसी विशिष्ट बाणकी क्रियाको चन्द्रवेध कहते हैं । इस कठिनतर कार्यको बाण विद्याके सतत् अभ्यास से ही संपन्न किया जाता है। ऐसे ही यह तत् सतत् भरणा करनेवाला मन है इसको एकाग्र करना चन्द्रक वेधसे भी कठिन है क्योंकि चन्द्रक वेष दृश्य है और मन और मनके विचार अदृश्य हैं केवल अनुभव गम्य हैं । विषयोंमें भ्रमण करते हुए इस मनके कारण संसारमें अनंत दुःख उठाने पड़ते हैं । अतः क्षपकको आचार्य उपदेश दे रहे हैं कि तुम्हें इस मनको ज्ञानाभ्यास में लगाकर वश कर लेना चाहिये । शुद्ध लेश्या ( पोत, पद्म, शुक्ल) वाले जिस पुरुष के ( क्षपकके) निकट सदाज्ञानरूपी दीपक प्रज्ज्वलित रहता है, उसके जिनोपदिष्ट मोक्षमार्गमें नष्ट होने का कोई भय नहीं होता है ।।७१९ ॥ भावार्थ - जिनागमका सतत् अभ्यास करनेसे कहीं स्खलन होना, विपरीत श्रद्धा होना, तत्त्वोंमें शक्ति होना, आवरण में अज्ञानता आदि मार्गसे च्युत करनेवाले प्रसंग नहीं आते, जैसे जिसके हाथमें दीपक जल रहा है उसको अंधेरे मार्ग में कहीं गिरना, चोट आना, विपरीत दिशा में चले जाना आदिका प्रसंग नहीं आता । ज्ञानका प्रकाश ही महाप्रकाश है, इसका व्याघात नहीं होता, सूर्य तो स्वल्प क्षेत्रको प्रकाशित करता है, किन्तु ज्ञान सर्व क्षेत्र को प्रकाशित करता है । अर्थात् संपूर्ण farasi ( लोकालोको ) जानता है || ८००ll
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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