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मरणकण्डिका
ज्ञानेन शम्यते दुष्टं नित्याभ्यस्तेन मानसम् । मंत्रण शम्यते कि न सुप्रयुक्तेन पन्नगः ॥७६४।। नियम्यते मनोहस्ती मत्तो ज्ञानवरनया। हस्ती धारण्यकः सद्यो भयदायी वरत्रया ॥७६५।। मध्यस्थो न कपिः शक्यः क्षणमायासितु यथा । मनस्तथा भवेन्नव मध्यस्थं विषयेविना ॥७६६॥ सवा रयितव्योऽसी जिनवाक्यवने ततः । रागद्वेषादिकं दोषं करिष्यति ततो न सः ।।७६७ । ज्ञानाभ्यासस्ततो युक्तः क्षयकस्य विशेषतः । विवेध्यं कुर्वतस्तस्य चंद्रकव्यधन यथा ॥७९॥
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नित्य अम्यस्त हुए ज्ञानके द्वारा दुष्ट-अशुभ खराब विचार याला मन शांत हो जाता है, ठीक ही है भलोप्रकारसे जिसका प्रयोग किया गया है ऐसे मंत्र द्वारा क्या कृष्ण सर्प शान्त नहीं होता ? होता ही है ॥७६४।।
मत्त ऐसा मन रूपी हाथो ज्ञान रूपी सांकलसे बाँधा जाता है अर्थात खोटे विचार करने वाले मनको ज्ञानके द्वारा नियंत्रित करते हैं । जैसे जंगली हाथी भयप्रद कठोर सांकल द्वारा शीघ्र ही बाँधा जाता है ।।७९५।।
जिसप्रकार बंदर मध्यस्थ होकर-चुपचाप एक क्षण के लिये भी बैठने में समर्थ नहीं होता है, उसप्रकार मन विषयोंके बिना नहीं रहता है, रूप, रस, शब्द आदि विषयोंमें विचरण करता है, मध्यस्थ नहीं रहता ।।७९६।। अत: चतुर पुरुषको चाहिये कि वह इस मनरूपो बंदरको जिन वाक्य रूपी-शास्त्ररूपी सुंदर वन में रमाता रहे । जिससे वह रागद्वेष आदि दोषों को नहीं करे ।।७६७।।
जिसप्रकार लक्ष्यवेधका अभ्यास करनेवाला. पुरुष एक दिन अवश्य ही चन्द्र वेध कर लेता है, उसीप्रकार क्षपकको अपने मन को नित्य ज्ञानाभ्यासमें विशेष रूपसे लगाना चाहिये ।।७९८॥
भावार्थ-धनुर्विद्याको सोखनेवाला प्रतिदिन बाण चलाकर ठीकसे लक्ष्यतक बाण पहुँचे और लक्ष्यको वेध देवे ऐसा अभ्यास करता रहता है । जव भलोप्रकार लक्ष्य