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अनुशिष्टि महाधिकार
[ २३५ छंद भुजंगप्रयातसमस्तानि दुःखानि विच्छिद्य सद्यः । सुखानि प्रभूतानि साराणि दत्वा ।। मुवा सेव्यमानं विधानेन मोक्षे। विद्याधानि दत्ते नमस्कारमित्रम् ॥७६१॥
इति नमस्कारः। न शक्यते बशोक विना ज्ञानेन भानस । अंकुशेन बिना कुन क्रियते कुजरो वशे ॥७६२॥ स्वभ्यस्तं कुरते ज्ञानं नानानर्थपरं मनः । पुरुषस्य वशे विद्या पिशाचमिव दुर्गहम ॥७६३।।
चली गई, उन्हें वापस लाने के लिये यह गंगामें कूदा । कूदते ही उसका पेट एक तीक्ष्ण काष्ठके घुसनेसे फट गया । उस समय उसने महामन्त्र का उच्चारण करके अपने ही सेठ के पुत्र होनेका निदान कर लिया। निदानके फलानुसार वह सेठके यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुवा । बालकका नाम सुदर्शन रखा गया । काल पाकर सेठ सुदर्शनने राज्यवैभवका भोग किया । अन्तमें दीक्षा धारण की और स्त्रियों एवं देवियोंके द्वारा घोर उपसर्गको प्राप्त होते हुए वे मोक्षगामी हुए।
कथा समाप्त।
प्रसन्नतासे सेवन करनेपर यह नमस्कार मंत्ररूपी मित्र शीघ्र ही समस्त दुःखों का नाशकर सारभूत प्रभूत सुखोंको देकर पुनः मोक्षमें अन्याबाध सुखोंको देता है ।।७६१॥
नमस्कार वर्णन समाप्त।
ज्ञानाभ्यास--
ज्ञानके विना मनको वश करना शक्य नहीं है, अंकुशके विना हाथी क्या कहीं पर वशमें किया जाता है ? नहीं किया जाता ! उसप्रकार ज्ञानके बिना मन वश में नहीं किया जाता ।।७६२।।
नाना अनर्थोको करने में लगे हुए इस मनको ज्ञान अपने वशमें कर लेता है, जैसे विद्या दुष्ट दुराग्रही पिशाचको पुरुषके वश में कर देतो है ।।७९३।।