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________________ मरणकण्डिका - - - . - लालानिष्ठोवनश्लेष्म पुरोगा विविधा मलाः । जायते सर्वदा वक्त्रे दंतकीटाकुलवणे ॥१०८६॥ ये मेनगुदयोः सन्ति बर्बोमूत्रादयो मलाः । न वक्तुमपि शक्यंते वीक्षितु ते कथं पुनः ॥१०८७।। चिक्कणो रोमकूपेष स्वेदः सर्वेषु सर्वतः । यकाः षट्पदिका लिक्षाजायंते सर्वदा ततः ।।१०८८।। गात्रेमुचति व सि विग्रहो निखिलरपि । गूथपूर्णो घटो गूथं छिद्रितो विवररिव ॥१०८६॥ गुह्यं रवयवैः स्त्रीणां निचित विविधर्मलेः । सारासारप्रष्टानां मानसं हियते कथम् ॥१०६०॥ लज्जनीयेऽतिबीभत्से मूढधी रमते कथम् । योनौ क्लिन्न स्रवद्रक्ते निचे कृमिरिवत्रणे ॥१०६१।। कों में कर्णों का मल रहता है तथा आंखोंमें उसका मैल और अश्रु निकलते हैं । नाकके पुटोमें सिंघान आदि निंद्य मल हुआ करते हैं ।। १०८५।। मुख में लार, थूक, कफ आदि विविध मल सदा हो रहते हैं, कैसा है यह मुख ? जिसमें दातोंके मसूड़ोंमें कीडोंका कूल और व्रण रहते हैं ।। १०८६।। मेदन और गुदामें क्रमशः मूत्र और मल आदि रहते हैं जिनको कहने के लिये भी शक्य नहीं उनका देखना किसतरह शक्य है ? अर्थात ये मेदन आदि पदार्थ निंदनीय होनेसे देखने कहने योग्य नहीं हैं ।।१०८७।। संपूर्ण रोम कूपों में चिकणा पसीना होता है, जिससे कि सदा जू लोक अर्थात् चर्मकी यूका जू उत्पन्न होती हैं ।।१०८८।। सारे ही शरीर अवयवोंसे मैल निकलता है, जैसे मैलसे भरे छिद्र वाले घटके छिद्रोंसे सतत् मैल झराता है ।। १०८६।। स्त्रियोंके विविध मलोंसे भरे गुह्य अवयवोंसे सार असारको देखने वाले मनुष्योंका मन कैसे लज्जित नहीं होता ? ||१०६०।। अति लज्जाका कारण, धिनावने, आद्र, रक्त झराते हुए निद्य ऐसे स्त्रीके योनिमें मुढ बुद्धि कैसे रमता है ? वह तो वैसा है जैसे व्रणमें कीड़े रमते हैं ||१०६१।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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