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अनुशिष्टि महाधिकार
अंगारस्येव
कायस्य
बहिरंतश्च दृश्यते I कोण्यrययः शुद्धः सर्वथा मलिनात्मनः ।। १०६२॥
कायो जलः पयोधानां धाव्यमानोऽखिलंरपि । स्वभावमलिनो जातु नांगार इव शुध्यति ।। १०६३।।
अभ्यंगस्नानमुखवंताक्षिभावनः ।
शश्वद्विशोध्यमानोऽपि दुर्गंधं वाति विग्रहः ॥ १०६४।।
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मृतिकांजनवाश्राणधातु भूलवल्लिभिः
के शास्यवासतांबूलधूपपुरुष
दलादिभिः
प्रच्छाय निवितं गंधं भुज्यतेऽन्यकलेवरम् । हिंग्वादिभिरिव द्रव्ये पिशितं विघृणात्मभिः ।। १०६६ ।।
।।१०६५।।
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जिसप्रकार कोयले का अंदरका और बाहरका एक भी अवयव शुद्ध ( शुक्ल ) नहीं होता सर्वथा मैला (काला) ही होता है, उसप्रकार शरीरका एक भी अवयव शुद्ध दिखायी नहीं देता ।। १०६२।।
निर्गम वर्णन समाप्त |
शरीर अशुचि वर्णन -
सागरोंके संपूर्ण जल से धोने पर भी यह स्वभावसे मैला शरीर कदाचित् भी शुद्ध नहीं होता, जैसे कोयला शुद्ध नहीं होता है ।। १०६३ || अभ्यंग, उद्वर्तन स्नान द्वारा तथा मुख प्रक्षालन, दांत धोवन, आंख प्रक्षालन आदि द्वारा यह शरीर सतत् शुद्ध करने पर भी दुर्गंधमय पदार्थों को उगलता रहता है ।। १०९४ || मुलतानी आदि मिट्टी द्वारा, अंजन, पाषाण स्वरूप अनेक प्रकारके रत्न, सुवर्ण आदि धातु या जल, छाल, जड़, बेल आदि पदार्थों द्वारा केश और मुख आदिका संस्कार तथा तांबूल, धूप, पुष्प, पत्र आदिसे निदित भौर दुर्गंधित शरीरको प्रच्छादित कर और सुगंधित करके उस स्त्री अथवा पुरुष के शरीरको भोगा जाता है अर्थात् घिनावने भागोंको ढककर दुर्गंधित भागों को जबरदस्ती सुगंधित करके कामुक स्त्री पुरुष उस शरीरका भोग करते हैं जैसे कि घिनावने दुर्गंधित मांसको हिंग आदि द्रव्योंसे संस्कारित कर दुष्ट निंदनीय पुरुष खाते हैं ।। १०६५।। १०६६।। यदि यह शरोर मयूरके समान स्वभावसे मनोहर होता तो