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________________ ३०८ ] मरणकपिठका मयूरदेहबद्द हो यद्यभास्यनिसर्गतः अभविष्यत्तवा शोभा तस्मिन्नीक्षणतोषिणी ॥१०६७।। प्रात्मनः पसिप्तो खेलो यदि स्प्रष्ट घुणायते । तवा रामामुखांभो हि पोयते कथितं कथम् ॥१०६८।। थोक्ष्यमाणो मनुष्याणां बहिरंतश्च वीक्ष्यते । एरंउदंडवहेहो न सारोऽत्र कदाचन ॥१०६६॥ चमरीणां कचं क्षीरं गवां शृङ्गाणि खङ्गिनां । भुजंगानां मणिः पिच्छं बहिणां करिणा रदः ।।११००॥ कस्तूरिका कुरंगाणामित्थं सारो विलोक्यते । शरीरे न पुनर्न णां कोऽपि क्यापि कदाचन ।।११०१॥ छंद-ब त विसंवितकुथित सनि वा कुथितः कृते मिफुलयिषिधरभितो भुते। शुचि नणां सकलाशुचिमविरे भवति किंचन नात्र कलेवरे ॥११०२॥ उसको शोभा नेत्रको प्रसन्न करती अर्थात् स्वभावसे सुदर वस्तुको देखने में संतोष होता है, यह शरीर तो ऊपरसे जबरन मनोहरसा किया गया है स्वतः सुदर नहीं है | १०६७।। अपने स्वयं के मुखसे गिरा हुआ थूक यदि स्पर्श करने के लिये घृणा करता है तो स्त्रीके मुखका सड़ा जल अर्थात् लार किस प्रकार पो जाती है ? यह बड़ा आश्चर्य है ।।१०६८।। अशुचिका वर्णन समाप्त । असारता वर्णन प्रारंभ मनुष्योंके शरीरको अंदरसे बाहरसे देखते हैं तो वह एरंड दंडके समान असार ही नजर आता है इसमें कदाचित् भी सार दृष्टिगोचर नहीं होता है ॥१०६६।। चमरी गायके केश, गायोंका दूध, हिरण के सींग, सौकी मणि, मयूरोंके पंख, हाथियोंके दांत और हिरणोंकी कस्तूरी इतने पदार्थ तिर्यंचके शरीरसे कदाचित् कथंचित् सारभूत देखे जाते हैं किन्तु मानवोंके शरीरमें कहींपर कदाचित् भी कोई पदार्थ सारभूत दृष्टिगोचर नहीं होता है ॥११००।१११०१।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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