________________
अनुशिष्टि महाषिकाय
यदि षण्णवतिरोगाः संभवति विलोचने । किस्से तदा नृणां सर्वत्रापि कलेवरे ॥। ११०३॥ कोटयः पंचाष्टषष्टीरच लक्षाः सह सहस्रकः । नवभिर्नवतिः पंचशत्याशीतिश्चतुर्युता ।। ११०४ ॥ ५
पीनस्तनीन्दुमत्रा या तारुण्ये हरते मनः । श्रनिष्टा जायते जीर्णा सेक्षुयष्टिरिवारसा ।।११०५ ।।
या यौवने प्रिया कांता सर्वावयवसु बरी । दुर्गंधा कुथितासास्ति बीभत्सा विरसा मृता ॥ ११०६ ।।
[ ३०६
यह मानव शरीर सड़े पदार्थों का मानो घर है, सड़े पदार्थोंसे ही निर्मित है, विविध कीड़ों के समुदायसे चारों ओरसे भरा है, संपूर्ण अशुचिका स्थान है, ऐसे इस कलेवर में कुछ भी शुचि और सार वस्तु नहीं है | ११०२ ।।
असारता वर्णन समाप्त |
रोग वर्णन --
मानवके इस शरीर में यदि एक नेत्रमें छ्यानवे रोग संभव हैं तो सारे शरीर में कितने रोग होंगे ? सारे शरीर में तो पांच करोड, अड़सठ लाख, निन्यानवे हजार, पांच सो चौरासी रोग संभव हैं ।। ११०३ । ।११०४॥
रोग वर्णन समाप्त |
अ- अनित्यता वर्णन -
सुंदरी पीनस्तनी चन्द्र सदृश मुखवाली नारी तरुण अवस्था में मनको हरती है वही नारी वृद्धावस्था में अनिष्ट बुरी हो जाती है जैसे नीरस इक्षु-मन्ना अनिष्ट हो जाता है ।।११०५ ।। जो कांता यौवनमें सर्वांग सुंदरी और अत्यंत प्यारी थी वह मर जानेपर दुर्गंधित, बीभत्स, सड़ी, विरस हो जाती है अर्थात् स्त्रीका मृतक शरीर घिनावना होता है जो पहले सुह्वना लगता था ।। ११०६ ।।