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________________ ३१० ] मरएकण्डिका म्रियते वल्लभा पूर्व स्वयं था म्रियतपुर। । जीवंती जोधतो चाहियते बलिभिर्बलात् ॥११०७॥ विरज्यते स्वयं तस्याः सा वा तस्य विरज्यते । परेण वा समायाति तिष्ठंती वा विरुष्यते ॥११०८।। चिरं तिष्ठति संस्कारे काष्ठग्रावाविरूपकम् । कलेवरं मनुष्याणां न संस्कारे महत्यपि ॥११०६॥ यौवनेंद्रियलावण्यतेजोरूप बलादयः । गुणाः क्षणेन नश्यति शारदा इव नीरदाः॥१११०॥ पतस्याहारवानार्थ सुरतस्य तपस्विनः । क्षणान्न कि महादेव्या नष्टः कुष्ठेन विग्रहः ॥११११॥ दांपत्य जीवनकी अघ्र वता--- कभी किसीकी पहले पत्नी मर जाती है तो कभी किसीका पति मर जाता है, कभी तो बलवान् अन्य पुरुष जीवित पतिके पस्नोको जबरन हरके ले जाता है ।।११०७।। अथवा पति पत्नी जीवित तो हैं किन्तु पति अपनी पत्नीसे किसी कारणवश विरक्त उदासीन हो जाता है या पत्नी अपने पतिसे नाराज उदास या विरक्त हो जाती है अथवा पत्नो अपने पतिको छोड़ कर अन्य पुरुषके साथ चली जाती है या पुरुष अपनी पत्नीको छोड़कर परायी नारीके साथ कहीं चला जाता है, कभी पति पत्नी साथ रहते हैं किन्तु परस्पर में विरुद्ध रहते हैं ।।११०८।। इस तरह दांपत्य जीवन दुःखरूप होता है। शरीर अध्र वता-- काष्ठ, पाषाण आदिके स्त्री या पुरुष, आदिके बने हए चित्र-प्रतिमा स्टेच आदिका संस्कार करते रहो तो वे पदार्थ चिरकाल तक ठहरते हैं-नष्ट नहीं होते किन्तु मनुष्योंके शरीरमें स्नान, व्यायाम, आहार आदि बहुतसे संस्कार करने पर भी वह ठहरता नहीं नष्ट हो जाता है ।।११०९।। शरीरका यौवन, इन्द्रियां, लावण्य, तेज, रूप, बल आदि गुण क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं, जैसे शरदकालीन मेघ क्षणभरमें नष्ट हो जाते हैं ।।१११०।। सुरत नामका राजा मुनिको आहार देनेके लिये गया इतने में ही उसको पट्टानीका शरीर क्षणमात्रमें कुष्ठ रोगसे क्या नष्ट-व्याप्त नहीं हुआ था ? हुआ ही था ॥११११।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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