SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुशिष्टि महाधिकार सूत्रमर्द्धाढकप्रभम् । प्रस्थप्रमितं वर्चा नखानां विशतिदन्ताद्वात्रिशस्त्रकृता मता: ||१०८०॥ काय: कृमिकुलाकीर्णः कृमिणो वा व्रणोऽखिलः । तं सर्वं सर्वतो व्याप्य स्थिताः पंचचरण्यवः ||१०८१॥ इत्यंऽवयवाः सन्ति सर्वे कुथितपुद्गलाः । नेकोsयवयवस्तत्र पवित्रो विद्यते शुचिः ॥। १०८२ ॥ दग्धनिःशेषचर्माणं पांडुरंगों गलस 1 feerasपि नो कोऽपि वल्लभामपि वल्लभः ।। १०८३ ॥ अभविष्यन्न चेद्गात्रं विहितं सूक्ष्मया त्वचा | को नामेदं तारप्रक्ष्यन्मक्षिका पत्रतुल्यया कर्णयोः कर्णगूथोऽस्ति तथाक्ष्णोर्मलमश्रु च सिंघाणकादयो मिद्या नासिकापुटयोर्मलाः ।। १०८४|| 1 [ ३०५ ||१०८५ ॥ आढक है, नख बोस हैं, दांत बत्तीस हैं सब अवयवोंका यह जो प्रमाण बताया वह स्वाभाविक रूप है ( विकृत अवयव होनाधिक भो हुआ करते हैं एवं मल आदिक भी विकृत होनेपर हीनाधिक हो जाते हैं) ||१०८०|| यह शरीर कृमिकुलोंसे भरा है, जैसे व्रण घाव कृमियोंसे भरा रहता । ऐसे इस शरीरको सब ओरसे व्याप्त करके पांच वायुयें स्थित हैं || १०८१ ।। इस शरीर में सर्व ही अवयव कुथित - सड़े पुद्गल स्वरूप हैं । उसमें एक भी अवयव पवित्र शुचि नहीं है ||१०८२ । जिसका समस्त चर्म जल गया है जिससे सफेद अंगवाला हो गया है एवं सड़ा रक्त जिससे झर रहा है ऐसा यह शरीर बन जाय तो वह भले ही प्रिय था किन्तु ऐसा होनेपर अपना प्रिय व्यक्ति भी उसे देखने की इच्छा भी नहीं करता है ।। १०८३ ।। मक्खी के पंख के समान पतले चर्मसे यह शरीर यदि ढका हुआ नहीं होता तो उसको कौन व्यक्ति स्पर्श करता ? कोई भी नहीं करता ।। १०८४ ।। शरोर अवयव वर्णन समाप्त | निर्गमका वर्णन अब इस शरीर से क्या निकलता है शरीर में क्या-क्या पैदा होता है यह बताते हैं
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy