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मरणकण्डिका
भावना भावयन्नेताः संयतो व्रतपीडनम् । विदधाति न सुप्तोऽपि जागरूकः कथं पुनः ।।१२६८ ।। त्वमतः समितो: पंच भावयस्वेकमानसः । महाव्रतान्यखंडानि निश्ािणि भवंति ते ।। १२६६।। छंद - रथोद्धता
भावनाः समितिगुप्तयो यतेर्वर्धयन्ति फलदं महाव्रतम् । शर्मकारि रजसां निरासकाश्चारुसस्यमिव कालवृष्टयः ॥ १२७० ।। इति महाव्रत वृष्टिः ।
क्यों रखा ? बात यह है कि सूत्र में जहां मुनियोंके समिति आदिका वर्णन है वहां ( नौवें अध्याय में) महावतका उल्लेख नहीं है, सूत्रकारने तो सामान्य रूपसे वृतका लक्षण कर उसके अणुवृत और महाव्रत ऐसे दो भेद बताये फिर भावनाओंके अनंतर सामान्य रूपसे हो अहिंसा आदिका लक्षण किया है जो कि अणुव्रत और महावृत दोनों में घटित हो । सूत्र रचना संक्षिप्त होती है । अत: व्रतका लक्षण भावना और अहिंसादिका लक्षण कहकर आगे गुण वृतादिका वर्णन किया है । इसलिये पच्चीस भावनायें महाव्रतोंकी ही हैं ऐसा समझना चाहिये । एक और बात है श्रावकाचारोंमें भावनाओंका aa नहीं मिलेगा किन्तु मुनिके आचार ग्रन्थोंमें भावनाओंका वर्णन मिलता है । इससे भी भावनायें महावतों की ही हैं ऐसा ही सिद्ध होता है ।
भावनाओंका माहात्म्य
इन पच्चीस भावनाओंको भानेवाला मुनि सुप्त अवस्थामें भी वृतोंका घात नहीं करता है, जाग्रत अवस्था में तो कैसे कर सकता है ? अर्थात् भावनाओं को भानेवाले मुनिके स्वप्न में भी दूतों में दोष नहीं लगते हैं ।११२६८।।
आचार्य क्षपकको उपदेश दे रहे हैं कि हे क्षपक ! उपर्युक्त कथन के अनुसार भावनाओंका महत्व जानकर तुम एकाग्र होकर भावनाओंको भावो । पांच समितियां पालो | इससे तुम्हारे महावृत अखंड और दोष रहित होवेंगे । पच्चीस भावनायें, पांच समितियां और तीन गुप्तियां ये मुनिके मुक्तिरूप फलको देनेवाले महाव्रतको वृद्धिंगत करते हैं । जैसे धूल मिट्टी आदिका निरसन करनेवाली समयानुसार होनेवाली वर्षा सुंदर एवं सुखदायक धान्योंकी वृद्धि करती है ।। १२६६ ।। १२७० ।।
भावनाओं का वर्णन समाप्त |