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अनुशिष्टि महाधिकार जिनेंद्रभक्तिरेकापि निषेद्ध दुर्गति क्षमा । प्रासिद्धिलब्धितो दातु सारां सौख्यपरंपराम् ।।७७७॥ सिवचस्यश्रुताचार्यसर्वसाधुगता परा । विच्छिनति भवं भक्तिः कुठारीव महोरहम् ।।७७८॥ नेह सिध्यति विद्यापि सफला न हि जायते । कि पुननि तेर्बीजं भक्तिहीनस्य सिध्यति ॥७७६॥ भक्तिमाराधनेशानां योऽकारणस्तपस्यति । स वपत्यूषरे शालीननालोच्य समं ध्रुवम् ॥७॥ ते बीजेन विना सस्यं वारिदेन विना जलम । कांक्षन्ति ये बिना भक्ति कक्षित्याराधनां नराः ।।७८१॥
अकेली जिनेन्द्र भगवानकी भक्ति भी दुर्गतिको रोकने के लिये समर्थ है तथा मोक्ष प्राप्ति होनेतक सारभूत अभ्युदयसुख परंपराको देनेके लिये समर्थ है ।।७७७।।
सिद्धोंकी भक्ति तथा जिन प्रतिमा, शास्त्र, प्राचार्य एवं सर्व साधु परमेष्ठियों में की गयी श्रेष्ठ भक्ति संसारका नाश कर देती है, जैसे कि वृक्षको कुल्हाड़ी नष्ट कर देती है ।।७७८॥
जो भक्तिसे रहित है उसके विद्या भी सिद्ध नहीं होती, पहलेको प्राप्त हुई विद्या भक्तिहीन पुरुषके फलदायक नहीं होती तो फिर मोक्ष के बीज स्वहर रत्नत्रय भक्तिविहीनके क्या सिद्ध हो सकता है ? नहीं हो सकता ।।७७९।।
जो पुरुष आराधनाके स्वामी स्वरूप अरहंत आदिकी भक्तिको नहीं करते हुए तपस्या करता है वह ऊसर भूमिमें चावलको बोता है अर्थात् ऊसर भूमिमें चावलोंको बोना जैसे व्यर्थ है वैसे ही अरंहृतादिको भक्ति बिना तपस्या करना व्यर्थ है ॥७८०।।
जो पुरुष जिनेन्द्रको भक्तिके बिना आराधनाको करना चाहते हैं वे बीजके बिना धान्यको चाहते हैं और मेघके बिना जलको चाहते हैं अर्थात् बीज विना धान्य प्राप्त नहीं होता, मेघ बिना जल नहीं मिलता वैसे ही जिनेन्द्र भक्ति विना आराधनाकी प्राप्ति नहीं होती ।।७८१।।