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________________ २३२ ] मरणकण्डिका विधिनोप्तस्य सस्यस्य वृष्टिनिष्पादिका यथा । तवाराधनाभक्तिश्चतुरंगस्य जायते ॥७८२॥ वंदनाभक्तिमात्रेण पनको मिथिलाधिपः ।। देवेंद्रपूजितो भूत्वा बभूव गणनायकः ॥७८३।। जैसे विधिपूर्वक धान्य के बोनेपर वर्षाको सफलता होती है अर्थात फसल आ जाती है, वैसे अरहंत आदिको आराधना करने रूप भक्तिके होनेपर चार आराधनाकी सिद्धि होती है ।।७८२॥ भावार्थ- हल जोतना आदि सब विधि करके अनाजको बोया जाय फिर उसमें मेघ बरसे तब फसल आती है वैसे आराधनाको जिन्होंने पहले प्राप्त किया है ऐसे अरहतादिकी भक्ति करने पर चार आराधनाको सिद्धि होती है, बीज बोनेरूप जिनेन्द्र भक्ति है और आराधनापूर्वक समाधिमरण फसल रूप है । मिथिला नगरीका राजा पद्मरथ जिनेन्द्र की वंदना करू इस भावरूप भक्ति मात्रसे ही देवेन्द्र पूजित होकर गणवर हुआ था ।।७८३।। राजा पमरथको कथा मगधदेश के अन्तर्गत मिथिलानगरी में परमोपकारी, दयाल और नीतिज्ञ राजा पद्मरथ राज्य करते थे । वे एक दिन शिकार खेलने गये। वहां उनका घोड़ा दौड़ता हुआ कालगुफाके समीप जा पहुँचा । गुफा में सुधर्म भुनिराज विराजमान थे । मुनिराज के शुभ-दर्शनोंसे महाराज पद्म अति प्रसन्न हुए । घोड़े से उतरकर उन्होंने भक्ति भावसे मुनिराजको नमस्कार किया। महाराज ने राजा को धर्मोपदेश दिया जिससे वे अति प्रसन्न हुए और विनीत शब्दों में बोले-गुरुराज ! आपके सदृश और कोई मुनिराज इस पृथ्वी पर है या नहीं ? यदि है तो कहाँ पर है ? मुनिराज बोले-राजन ! इस समय इस देश में साक्षात् १२ वें तीर्थकर वासुपूज्य स्वामी विद्यमान हैं, उनके सामने मैं तो अति नगण्य हूँ। मुनिराजके बचन सुनकर राजाके मनमें भगवान के दर्शन करने की प्रबल इच्छा जागृत हो गई और वह अपने परिजन-पुरजनोंके साथ भगवानके दर्शनार्थ चल पड़ा । उसो समय धन्वन्तरि चरदेव अपने मित्र विश्वानुलोम चर ज्योतिषी देव को धर्म परीक्षाके द्वारा जैनधर्मको श्रद्धा कराने के लिये वहाँ आया, उसने भगवानके दर्शनार्थ जाते हुए राजा पर घोर उपसर्ग किया, किन्तु भक्तिरससे भरा हुआ राजा
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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