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________________ २३० ] मरणकण्डिका सम्यक्त्वस्य च यो लाभस्त्रलोकस्य च यस्तयोः । सम्यक्त्वस्य मतो लाभः प्रकृष्टः सारवेविभिः १७७३।। श्रलोक्यमुपलभ्यापि ततः पतति निश्चितम् । अक्षयां लभते लक्ष्मीमुपलभ्य सुदर्शनम् ॥७७४।। छंद उपेन्द्रवजादवाति सौख्यं विधुनोति दुःखं भवं लुनीते नयते विमुक्ति । निहन्ति निदां कुरुते सपर्या सम्यक्त्वरत्नं विवाति किन ॥७७५॥ (इति सम्यक्त्व) भक्तिमहत्सु सिद्धष चंत्येष्वाचायंसाधुषु । विधेहि परमां साधो ! निश्चयस्थितमानसः ॥७७६।। विशेषार्थ- सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद यदि नहीं छूटता है तो नियमसे यह देव और मनुष्यमें ही जन्म लेता है । देवोंमें भी इन्द्र, प्रतीन्द्र, अहमिन्द्र, सामानिक आदि श्रेष्ठ वैमानिक देबोंमें ही जन्म लेमा । अभियोग्य, व्यंतर फिल्विषिक आदि होन देवों में कदापि जन्म नहीं लेगा । मनुष्योंमें चक्रवर्ती, बलदेव, कामदेव, मंडलीक महामंडलीक प्रादि श्रेष्ठ मनष्योंमें जन्म लेगा । दरिद्री, नीचकुली, होनशक्तिक, विकलांग बेरूप आदि मनुष्य कदापि नहीं बनेगा । इसतरह कुछ भव लेकर मुक्त होगा । अतः यही कहा है कि सम्यक्त्व धारा प्रवाह रूपसे कल्याण परंपराको देता है। सम्यक्त्व का लाभ और तीन लोकका लाभ ये दो लाभ हैं, इनमें जो सम्यक्त्व का लाभ है वह लाभ सर्वश्रेष्ठ है, उत्कृष्ट है ऐसा सारभूत रत्नत्रयके ज्ञाता गणधरादि देव कहते हैं |७७३।। क्योंकि त्रैलोक्य को प्राप्त करके भी यह जीव उससे नियमसे गिर जाता है और सम्यक्त्वको प्राप्त करके नियमसे यह जीव अक्षय मुक्ति लक्ष्मी को हमेशाके लिये प्राप्त कर लेता है ।।७७४।। यह सम्यक्त्व रत्न सौख्यको देता है, दुःखको नष्ट करता है, संसारको काटता है, मोक्षमें ले जाता है, निन्दा-अपयशको नष्ट करता है, पूजा-आदरको प्राप्त कराता है, सम्यक्त्व क्या नहीं करता ? सब कुछ करता है ।।७७५। सम्यक्त्व भावना समाप्त । भक्ति --- हे माधो ! निश्चित स्थिर मन वाले तुम अरहंतोंमें परम भक्ति करो, सिद्धोंमें, जिन प्रतिमाओंमें, आचार्य और साधुओंमें उत्कृष्ट भक्तिको करो ।।७७६॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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