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________________ अनुशिष्ट महाधिकार अच्छिन्ना लभ्यते येन कल्याणानां परंपरा । मूल्यं सम्यक्स्वरस्नस्य न लोके तस्य विद्यते ।। ७७२ ।। [ २२९ उसका इस विषय में सदा विवाद चलता था । एक दिन राजा वन विहार में गया वहांपर एक मुनिराज ध्यान में बैठे थे, उन्हें देखकर धर्म छोपसे मुनिराज के गले में मरा सर्प डाल दिया । राजाने बातचीत करते हुए चेलनाको यह वृत्तांत सुनाया । चेलना अत्यंत दुःखी हुई उसने कहा- हा ! प्राणनाथ ! आपने यह अत्यंत निंदनीय पापकर्म करके अपनेको दुर्गतिका पात्र बनाया है। बड़े खेदकी बात है कि मेरे रहते हुए ऐसा कुकृत्य करके आप आगामी भवमें चिरकाल तक कष्ट भोगेंगे ? इत्यादि विलाप करती हुई चलना श्रोणिकके साथ वनमें आयी मुनिराजका उपसर्ग दूर किया । ध्यान को विसर्जित करके चरणोंमें प्रणाम करते हुये दोनों राजा रानोको मुनिराजने समान हो सद्धर्भवृद्धि - रस्तु आशीर्वाद दिया। महाराजके उत्तमक्षमा भावको देखकर श्रेणिकको मिथ्या मान्यता चूर चूर हो गयो । उसका हृदय अपने कुकृत्यके कारण पश्चात्तापसे भर आया । उसने बहुत देर तक मुनिराजसे क्षमायाचना की तथा उनसे धर्मोपदेश सुनकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया। श्रेणिकने भगवान महावीरके समवशरण में जाकर प्रभुको स्तुति वंदना पूजा की तथा उनकी दिव्य वाणी सुनी । जब जब प्रभुका समवशरण राजगृहीके विपुलाचल पर आता तब तब राजा दर्शनार्थ जाता । भगवानके निकट श्रोणिकने साठ हजार प्रश्न किये एवं तत्व सिद्धांत आदि संबंधी समस्त जिज्ञासायें शांत कीं । परिणामोंकी अत्यंत विशुद्धि द्वारा क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया तथा परमात्य पदका कारण ऐसे तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया । अष्टांग सम्यक्त्व रत्नोंसे अलंकृत वह श्रेणिक आगामी काल में पदम नामका तीर्थंकर होगा | इसप्रकार सम्यक्त्वके माहात्म्यसे श्रेणिकने अपने अनंत संसार परिभ्रमण का नाशकर मुक्तिको सन्निकट कर लिया है । कथा समाप्त जिस सम्यत्व द्वारा निरंतर अभ्युदय आदिको कल्याण परंपरा प्राप्त होतो है उस सम्यक्त्व रत्नका मूल्य लोक में नहीं हैं अर्थात् वह तो अमूल्य है, उसका मूल्यांकन हो नहीं सकता ||७७२ ।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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