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________________ निर्यापकादि अधिकार कश्चिदुद्धरते शत्यं क्षिप्रमाकर्ण्य देशनां । करोति संसृतित्रस्तः सूरीणां वचसा न कि ।।७२७॥ समाधानीयतो गुनोः संस्याज्य सकलं गरणी । एकैकं हापयन्नैवं प्रकृते वधते शनैः ।।७२६ ।। [ २१५ रूप सूक्ष्म मनके शल्यको दूर करने के लिये दिव्य उपदेश देते हैं। किसतरह देते हैं ? क्षपकको प्रसन्न करते हुए उसको शांति उपजाते हुए उपदेश देते हैं ।। ७२६ ।। गुरुके द्वारा उपदेश पर कोई अपदेशनाको सुनकर शीघ्र ही उस शल्य - आहारवांछा को त्याग देता है और संसार से भयभीत होता है अर्थात् भोग आहार संसार आदिसे वैराग्य उपजानेवाला उपदेश सुनने से क्षपकको संसारसे भोरुता आती है कि अहो ! इस आहार के कारण मैंने अतीत में अनंत दुःख उठाये हैं अब भी आसक्तिको नहीं छोडूंगा तो पुनः वही दुःख उठाने पड़ेंगे इसतरह जाग्रत हुआ क्षपक संसारसे भयभीत होता है । ठीक ही है ! आचार्यके वचन द्वारा क्या क्या हित नहीं होता ? सब ही हित होता है ।।७२७|| समाधिका इच्छुक व सरस आहारकी गृद्धता से युक्त उस क्षपकके सकल आहार में से एक एक आहारका त्याग कराते हुए वे आचार्य क्रमशः प्रकृत आहार में उसे धीरे धीरे स्थापित करते हैं । ७२८ || विशेषार्थ - क्षपकको समाधिके लिये तीन प्रकारके आहारका त्याग कराते हैं । त्याग कराते समय उसको इष्ट मिष्ट ऐसा आहार दिखाते हैं तब कोई क्षपक देखने मात्र से, कोई चखने मात्र से कोई आंशिक मिष्ठान खाकर के और कोई पूर्ण आहार लेकर उस सरस भोजनसे विरक्त हो जाता है किन्तु कोई क्षपक पूरा सरस आहार करने के बाद भी मिष्ट आहारकी लालसा नहीं छोड़ता तब आचार्य आहारकी असारता रूप विराग भरा उपदेश देकर त्याग कराते हैं । कोई मिष्टाहार एवं देशना सुनकर भी विरक्त नहीं होता तब आचार्य संपूर्ण सरस आहार में से एक एक प्रकारका आहार स्थान कराते रहते हैं । पुनः सर्व सरस आहारका त्याग कराके प्रकृतमें जैसा आहार पूर्व चल रहा था नीरस आदि रूप, उसमें क्षपकको स्थापित करते हैं ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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