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मणकण्डिका
छद उपजातिक्रमेण वैराग्यविधौ नियुक्तो निरस्य सर्व क्षपकस्ततोऽन्न । आराधनाध्यानविधानदः स पानकर्भावयते श्र तोक्तौ ॥७२६।।
इति हानि । लेपालेपघनस्वच्छ सिक्यासिविकल्पतः । पानकर्मोचितं पानं षोडे कथितं जिनैः ॥७३०।। प्राचाम्लेन क्षयं यातिश्लेष्मा पित्तं प्रशाम्यति । परं समोररक्षार्थ प्रयत्नोऽस्य विधीयताम् ॥७३१॥
पुनः वैराग्यविधिमें स्थापित किया गया क्षपक क्रमशः सर्व हो प्रन्न आहार का त्याग करता है उस क्षपकको आचार्य आराधना तथा ध्यानके विधानमें प्रवीण शास्त्रमें जैसा कथन है वैसे पेय पदार्थों द्वारा भावित करते हैं अर्थात् सादे नीरस अन्न का भो सर्वथा त्याग कराके क्षपकको केबल जल आदि पेय पदार्थ दिया जाता है ॥७२९॥
हानि नामा उनतीसवां अधिकार समाप्त । (३०) प्रत्याख्यान अधिकार
लेप-हाथको चिपकने वाला पान, अलेप अर्थात् नहीं चिपकनेवाला पान, गाढ़ा पान, केवल जल, कणयुक्त पान और कण रहित पान इसप्रकार पानक आहार छह प्रकारका है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ।।७३०।।
भावार्थ-इमलो आदिका पानक लेप है, मांड वगैरह अलेप है, चावल के कणों से युक्त मांड मिक्थ है और जिसमें कण नहीं हो वह असिक्थ पान है। इनमें से यथायोग्य पानक क्षपकके लिये दिया जाता है ।
आचामलसे कफ नष्ट होता है और पित्त शांत हो जाता है । वायु रक्षाके लिये भी आचाम्ल ठीक है अतः इसका प्रयोग करना चाहिये ।।७३१||
भावार्थ-निकट है मृत्यु जिसके ऐसे क्षपकके वातपित्त कुपित न होवे ऐसा पानक उसे देना चाहिये । आचाम्लसे प्राय: कफ आदि नष्ट होते हैं अत: इस पानकका प्रयोग यथायोग्य क्षपकको प्रकृति देखकर करना चाहिये । भाव यह है कि आयुर्वेदानुसार जिससे बात कफादि न हो या उनमें वृद्धि न हो ऐसा पानक क्षपकको दिया जाता है।