SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्यापकादि अधिकार ततोऽसौ भावितः पानैर्जाठरस्य विशुद्धये । मलस्य मधुरं मंद पायनोयो विरेचनम् ॥७३२॥ प्रमुवासादिभिस्तस्य शोध्यो वा जाठरोमलः । अनिरस्तो यतः पोडां महतीं विदधाति सः ॥७३३॥ प्राराधस्त्रिधाहारं यावज्जीवं निषेधमिति संघस्य निर्यायक क्षपको वाऽखिलांस्त्रेधा भान्तः क्षमयते भक्ताः ! विमोक्षति । गणेशिना ।।७३४|| निःशल्पी भूतमानसः । क्षमागुण विचक्षणः ॥७३५॥ | [ २१७ तदनंतर जिसको पानक आहार दिया जा रहा है ऐसे क्षपकके पेटकी विशुद्धि के लिये तथा मलका विरेचन करनेके लिये मंद मधुर पानक पिलाना चाहिये || ७३२ ॥ कांजी में भोगे हुए बिल्व पत्तों क्षपकके पेटको सेकना, नमक आदिको बत्ती गुदाद्वार में लगाना इत्यादि क्रियासे क्षपकके मलको चाहिये क्योंकि यदि उदरका मल न निकाला जाय तो महान पीड़ा होती है ||७३३|| यह आराधक अब तीन प्रकारके आहारोंका यावज्जीव त्याग करेगा ऐसा संघको निर्यापक आचार्य निवेदन करते हैं ||७३४ || शल्य रहित हो गया है मन जिसका ऐसा तथा क्षमागुण युक्त विचक्षण यह क्षपक आप सभी लोगों से मन, वचन, कायद्वारा क्षमा मांगता है, आप भक्त हैं इसप्रकार शति स्वभाव आचार्य संघको निवेदन करते हैं ||७३५|| भावार्थ — क्षपकके द्वारा यावज्जीवके लिये तीन प्रकारके आहारका त्याग करने के सम्मुख होनेपर इस बातकी सूचना आचार्य सर्व संघको देते हैं तथा क्षमा कराने हेतु ब्रह्मचारी के हाथ में क्षपककी पीछी देकर आचार्य सर्व संघके पास जाकर कहते हैं। कि क्षपक आप सबसे प्रार्थना कर रहा है कि मैं आपसे मन, वचन, कायकी शुद्धिपूर्वक क्षमा मांगता हूँ, मेरा किसीसे वैर नहीं है । इसतरह सर्व संघ को निवेदन करते हैं । क्षपक अशक्त होने के कारण सबके निकट जा नहीं सकता, अतः पीछो दिखाकर आचार्य क्षमाभावको प्रतीति संघको कराते हैं ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy