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________________ २१८ ] मरणकण्डिका आराधनास्य निविघ्ना सम्यक् संपद्यतामिति । स याति सकल: संघस्तनत्सर्गमसंभ्रमम् १७३६॥ तं चतुविध माहारमाचार्यो विधिकोधिवः । मध्ये सर्वस्य संघस्य स प्रत्याख्यापयेत्ततः ॥७३७।। त्रिविधं वा परित्याज्यं पानं देयं समाधये । अनत्याने पुनः पनं ताजनीयं पटोयसा ॥७३८।। छंद शालिनीयत्रिविष्टं पान कर्माधिकारे दात्तुं शक्तं तत्समाधानरत्नम् । षोढा पानं युज्यते तस्य पातु धाहारं स्यागकालेपवित्रम् ॥७३६॥ इति प्रत्याख्यानं । प्राचार्येऽध्यापके शिष्ये संघे सामके कुले । योऽपराधो भवेत्त्रेधा सर्व क्षमयते स तं ॥७४०।। _इसतरह क्षमा याचना करनेपर इस क्षपककी आराधना निर्विघ्न समोचोनतया संपन्न होवो इस भावनासे संपूर्ण संघ शांतिपूर्वक कायोत्सर्ग करता है ।।७३६।। क्षमा याचनाके अनंतर सर्व संघके मध्य में विधिमें कुशल ऐसे आचार्य क्षपकके द्वारा चतुर्विध आहारका त्याग कराते हैं ।।७३७।। अथवा क्षपकके भावनानुसार संघके समक्ष पहले तीन प्रकारके आहारका त्याग कराना चाहिये तथा शांति के लिये पानक पेय देना चाहिये, फिर अन्त में कुशल आचार्य क्षपकको पानकका भी त्याग करा देते हैं ।।७३८।। __ पान किया अधिकारमें जो छह प्रकारका पानक बतलाया है, जो कि क्षपकको समाधान रूपी रत्नको देने में समर्थ है अर्थात् जो पानक क्षपकको शांति कराता है व्याकुलताको कम करता है उस पवित्र पानकको तीन प्रकारके आहारके त्याग करानेपर पिलाना चाहिये ।।७३६॥ प्रत्याख्यान नामका तीसवां अधिकार समाप्त । (३१) क्षामण अधिकार प्रत्याख्यानके अनंतर आचार्य, उपाध्याय, शिष्य संघ, सामिक कुल इन मनियों के विषयमें मन, वचन और काय द्वारा जो अपराध हुमा है कषाय भाव हुआ है उन सब अपराध एवं कषाय भावको क्षपक क्षमा मांगता है ।।७४०।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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