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निर्यापकादि अधिकार
मूर्धन्यस्तकराम्भोजो रोमांचचितविग्रहः 1 त्रिधा क्षमते सर्व संवेगं जनयन्नसौ ।। ७४१॥
योsपराधोमयाकारि मनसा वपुषा गिरा । क्षमये तमहं सर्व निःशल्यीभूतमानसः
छंद मंदाकिनी -
मम पितृजननीसदृशः शश्वस्त्रिभवन महितः सुयशाः संघः । प्रियहितजनकः परमां क्षांति रचयतकृतवानहमक्षान्ति ।।७४३||
इति क्षामणा ।
मस्तक पर रखा है हस्तकमल जिसने ऐसा यह क्षपक संवेगभावको प्रगट करता हुआ सर्व क्षमा मांगता है ||७४१॥
।।७४२ ॥
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रोमांचयुक्त हो रहा है शरीर जिसका संघसे मन, वचन, कायकी शुद्धि पूर्वक
भावार्थ - मुमनुके जो भी कर्त्तव्य होते हैं उन सबको मैंने कर लिया है इस विचारसे जिसके हृदय में प्रसन्नता हो रही है और इसीलिये हर्षके रोमांच जिसके गात्र में फूट पड़े हैं ऐसा वह क्षपक अपने मस्तकपर दोनों हाथ जोड़कर रखता है और सर्व संघको नमस्कार करता है तथा सर्व साधर्मी मुनियों में अनुराग उत्पन्न करता हुआ क्षमा ग्रहण कराता है ।
क्षपक कहता है कि भो मुनिगण ! मेरे द्वारा मनसे, वचनसे, कायसे जो भी अपराध किया गया है उस अपराधको निःशल्य मानस युक्त हो में सबसे क्षमा मांगता हूँ॥ ७४२ ॥
इकतीसवां क्षामण अधिकार समाप्त ।
अहो ! यह संघ मेरे पिता माता तुल्य है, सदा हो त्रिभुवन में पूज्य है, यशस्वी है, प्रिय और हितको उत्पन्न करनेवाला है, ऐसे आप सभोको मैंने शांति भंग की है, सो अब आप परम क्षमा-शांतिको करें अर्थात् मैं सब संघसे क्षमा याचना करता हूँ सर्व संघ मेरे को क्षमा प्रदान करे। मैं भी आपके अपराधको भूल जाता हूँ इसप्रकार क्षपक द्वारा महान विशुद्धि को करने वाली क्षमा की जाती हैं, क्षमा याचना की आती है ।१७४३||