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मरणशण्डिका क्षपयित्वेति वैराग्यमेष स्पृशन्ननुत्तमम् । सपः समाधिमास्वश्वेष्टते क्षपयन्नघं ॥७४४।। अप्रमतागुणाधाराः कुर्वन्तः कर्मनिर्जराम् । अनारतं प्रवर्तते, ज्यावृत्तीपरिचारकाः ॥७४५॥ यज्जन्मलक्षकोटीभि, रसंख्याभी रजोऽजितम् । तत्सम्यग्दर्शनोत्पादे, क्षणेनकेन हन्यते ॥७४६।।
(३२) क्षपण अधिकार
इसप्रकार क्षमाको करके यह क्षपक उत्कृष्ट वैराग्य का स्पर्श करता हुआ, तप और समाधिमें आरूढ़ होकर पापका नाश करते हुए प्रयत्नशील-जाग्रत रहता है ॥७४४॥ समाधिमें उद्यत क्षमा युक्त इस क्षपककी वैयावृत्त्यमें परिचारक मुनि सतत् लगे रहते हैं, कैसे हैं वे मुनि ? प्रमाद रहित हैं गुणोंको खानि हैं और कर्म निर्जराको कर रहे हैं अर्थात् वयावृत्त्य नामके इस तप द्वारा जो कर्मोको बड़ी भारी निर्जरा कर रहे हैं ।।७४५।।
आशय यह है कि गणकी रत्नत्रय धर्ममें स्थिर करने वाले आचार्य और परिचारक मुनि ये सब ही दिन रात क्षपकको सुश्रुषामें तत्पर रहते हैं अतः उनके कर्मों की निर्जरा होती है ।
जो असंख्यात लक्ष कोटी जन्मों द्वारा कर्म अजित हुआ है वह सब सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होनेपर एक क्षण में नष्ट हो जाता है ।।७४६।।
विशेषार्थ----समाधिमरण एक महायज्ञ है जिसमें बिना किसी खेद, जोश, मोहके प्रसन्नता से रत्नत्रय का पालन करते हुए क्षपक अपने प्राणों की आहुति देता है, ऐसे महान् धर्ममय मुनिराजके दर्शन वंदन भक्ति सेवा आदि जो भी व्यक्ति करता है उसके अनेक भवों के पापोंका नाश तो होता ही है इसमें तो कोई शंका हो नहीं है । विशेष तो यह है कि यदि किसीके कालादि लब्धि निकट आ चुकी है तो उसे उस वक्त क्षपकके दर्शन एवं उनकी महान तपस्याके देखनेसे अत्यधिक धार्मिक स्नेह वश रोमांच आ जाते हैं, परिणाम की विशुद्धि बढ़तो जाती है और इस तरह वह कुछ ही क्षणमें क्षयोपशम विशुद्धि आदि लब्धिसे समन्वित हुआ सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त कर लेता है। क्षपकके परिचारक मुनि आदिके भी कदाचित् सम्यक्त्व नहीं है या होकर नष्ट हो चुका है तो उन्हें भी क्षपक को हृदय की प्रसन्नता पूर्वक को गयी सेवा आदि से उस वक्त सम्यक्त्व