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निर्यापकादि अधिकार
[ २२१ धुनौते क्षणतः कर्म, संचितं बहुभिर्भवः । ध्यावृत्तोऽन्यतमेयोगे प्रत्याख्याने विशेषतः ॥७४७।। प्रतिक्रान्तौ तनुत्सर्गे स्वाध्याये बिनये रतः । अनुप्रेक्षासु कर्मेति धुनीते संस्तरस्थितः ।।७४८।।
छंद प्रहरणकलिता-- अनशननिरते तनुभूति सकलं, भवभयजनक विगलति कलिलं । अनुहिमकिरणे ह्य दयति तरणी, कमलविकसने च घनमिव तमः।७४६।।
___ इति क्षपणं ।
प्राप्त हो सकता है । क्षपक के स्वयके भी सम्यक्त्व नहीं है, होकर छूट गया है तो उस वक्त रत्नत्रय धर्मका सतत् उपदेश आचार्य द्वारा मिलता रहनेसे सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है । सम्यग्दर्शन होते ही असंख्यात भवों में उपाजित कर्म राशि चूर-चूर हो जाती है अर्थात् पाप प्रकृतियोंका अनुभाग खण्डन, स्थिति खण्डन आदि होते हैं। नया कर्म भी बहत अल्प' स्थिति वाला बंधता है । अत: क्षपकका वयावृत्य उसका दर्शन, भक्ति आदि सभी मुमुक्षुको सर्वथा उपादेय है ।
बारह प्रकार के तपश्चरण, वृक्ष मूल आदि योग इत्यादि को करने में तत्पर हुए जीव बहुत-बहुन भवों द्वारा संचय को प्राप्त हुए कर्मों को क्षणमात्रमें नष्ट कर डालते हैं, अर्थात् तपस्या द्वारा अनेक भवोंके कर्म निर्जीर्ण कर देते हैं और सल्लेखनामें यावज्जीव चतुराहार का त्याग करने पर तो विशेष रूपसे कौको निर्जरा होती है ।।७४७।।
संस्तर स्थित क्षपक प्रतिक्रमणमें तत्पर है चाहे कायोत्सर्गमें लीन है अथवा स्वाध्याय और विनय में प्रवृत्त है, अनुप्रेक्षाओंके चिन्तन में लगा हुआ है इनमें से जो कोई कार्य कर रहा हो सब में ही उसके कर्मको निर्जरा होती है ।।७४८।।
जीवके अनशन तपमें उद्यत होनेपर संसार के भय को उत्पन्न करनेवाला समस्त पापकर्म नष्ट होता है, जैसे कि चन्द्रमाके पोछे कमलोंके विकासका कारण ऐसे सूर्य के उदित होनेपर गाढ अंधकार नष्ट हो जाता है ॥७४६।।
क्षपणनामा बत्तीसवां अधिकार समाप्त ।