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ធំប៉ុង
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अनुशिष्टि महाधिकार
निर्यापको गणो शिक्षा, संस्तरस्थाय यच्छति । कुर्वन्संवेग निवौ, कर्णे जपमथानिशम् ॥७५०।। अनुशिष्टं न चैव वत्त, क्षपकाय गणाप्रणीः । त्यजेदाराधनावेवों, तवानों सिद्धि संफलीम् ।।७५२॥ शोषयित्वोपधि शयां, वैयावत्यकरानपि । निःशल्यीभूय सर्वत्र, साधो ! सल्लेखनां कुरु ॥७५२॥
निर्यापक आचार्य संस्तरमें स्थित क्षपकके लिए शिक्षा उपदेश प्रदान करते हैं । तदनंतर क्षपक को संवेग निर्वेदको कराते हुए कानमें सतत जाप सुनाते हैं ।
अर्थात् जब क्षपक अत्यंत क्षीण शक्तिक हो जाता है तब निकटमें बैठकर कानमें बहुत मधुर वाक्य या पंच परमेष्ठी का जप सुनाते हैं ॥७५०॥
क्षपकके लिये यदि आचार्य शिक्षा उपदेश नहीं देते तो सिद्धि जिसका फल है सो आराधना देवीको क्षपक छोड़ देगा अर्थात् बिना शिक्षाके क्षपक समाधिसे च्युत हो जायगा ।।७५१॥
आचार्य क्षपकके लिये यह शिक्षा देते हैं कि हे साधो ! तुम उपधि-पीछी आदि भारया वसति और वैयावृत्य करनेथाले की भी भलीप्रकार परीक्षा करो शोधन करो कि यह उपधि निर्दोष निर्जन्तुक देखी हुई है या नहीं ? यह पीछी कमंडलु आसन निर्दोष अनादिष्ट है या नहीं ? यह वसति उद्दिष्ट दोष रहित निर्जन्तुक है क्या ? वैयावृत्य