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________________ अनुशिष्टि महाधिकार मिध्यात्ववमनं दृष्टि, भावना रति भावनमस्कारे, ज्ञानाभ्यासे भक्तिमुत्तमां । कुरूद्यमम् ।। ७५३ ।। मुने! महाव्रतं रक्ष, कुरु कोपाविनिग्रहम् । हृषीक निर्जयं द्व ेषा, तपोमार्ग कुरूश्चमम् ॥७५४।। भवद्रुम महामूलं मिध्यात्वं सुच सर्वथा । मोह्यते सगुण बुद्धि, मद्येनेव सुने ! लघु ।। ७५५ ।। [ २२३ करनेवाले वैयावृत्य में असंयम तो नहीं करते ? इसप्रकार पहलेसे हो देखो परीक्षण करो ! परोक्षण करके सर्वत्र निःशल्य होकर सल्लेखना करो ।।७५२ ।। हे क्षपकराज ! तुम मिथ्यात्वा नमन करो सम्यक्त्व की भावनाको तथा परमेष्ठी में उत्तम भक्ति को करो । परिणाम शुद्धि रूप भाव पंचनमस्कार में रति और ज्ञानाभ्यास में उद्यम करो ।। ७५३ ।। भावार्थ -- यह श्लोक सूत्ररूप है । इसमें मिथ्यात्व व मनका उपदेश ग्यारह श्लोकों में है । सम्यक्त्व भावनाके वर्णन में नौ, भक्तिके वर्णनमें नौ, पंच नमस्कार वर्णनमें सात और शानाभ्यास के वर्णन में सत्तरह श्लोक हैं । हे मुने! महाव्रत की रक्षा करो, क्रोधमान आदि कषायोंका निग्रह और इन्द्रियों पर विजय करो। दो प्रकारके बाह्य अभ्यंतर तपमार्ग में उद्यम करो ।।७५४।। भावार्थ – यह श्लोक भी सूत्ररूप है । ऊपरके श्लोक में कहे हुए मिथ्यात्व TET आदि पाँच विषयोंके वर्णन के त्रेपन श्लोकोंके अनंतर इस श्लोक में कथित महाव्रत को रक्षा आदि चार विषयोंका वर्णन है ८०५ श्लोकसे लेकर १४२१ श्लोक तक महाव्रत रक्षा इस विषयका वर्णन होगा । कषाय निग्रह और इन्द्रिय विजयका वर्णन सम्मिलित रूपसे है वह १४२२ से लेकर १५१८ तक है । तपके उद्यम का वर्णन १५१६ से लेकर १५४६ श्लोक तक है । हे मुने ! संसार रूपी महावृक्षके मूलस्वरूप मिथ्यात्वको सर्वथा छोड़ दो । क्योंकि मिथ्यात्व गुणवाली बुद्धिको शीघ्र हो मोहित करता है, जैसेकि मद्य द्वारा बुद्धि मोहित होती है ।।७५५ ।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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