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________________ २१४ } मरणकण्डिका अशित्वा कश्चिदंशेन तीरं प्राप्तस्य किं मम । इति वैराग्यमापन्नः संवेगमवगाहते ॥२३॥ बल्भित्वा सर्वमेतेन तोरं प्राप्तस्य किं मम । इति बैराग्यमापन्नः संवेगमवगाहते ॥२४॥ बल्भित्वा सुन्दराहारं रसास्वादनलालसः । कश्चित्तमनुबध्नाति सर्वे देश च गृद्धिसः । ७२५॥ इति प्रकाशना । कुरुते देशनां सूरिरायापाविशारदः । निराकतुं मनःशल्यं सूक्ष्मं निर्यापयन्नमम् ॥७२६।। युक्त हो संवेगका अवगाहन करता है अर्थात् आहारका त्याग यावज्जीवके लिये कर लेता है ।।७२२।। कोई क्षपक उक्त आहार को किंचित् ग्रहण कर सोचता है कि जोवनके तीर को प्राप्त हुए मुझे इस आहारसे क्या प्रयोजन है ! इसतरह विचारकर वैराग्य युक्त हो संवेगका अवगाहन करता है ।।७२३।। कोई क्षपक उक्त मनोहर आहारको पूर्णतया खाकर सोचता है कि अहो ! धिग धिग् आहार यांछाको । आयुके तट को प्राप्त हुए मुझे आहारसे क्या मतलब है ? इसतरह सोचकर वैराग्ययुक्त संवेगको प्राप्त होता है ।।७२४।। कोई क्षपक मुनि दिखाये गये सुदर मिष्ट आहारको पूर्णरूपसे खा लेता है, रसके आस्वादन में आसक्त ऐसा वह उक्त आहारको एक देश या पूर्ण रूपसे गद्धिके कारण पुनः पुनः चाहता है अर्थात् आहारको अभिलाषा करता है त्याग नहीं करता ।।७२५॥ ॥ प्रकाशन नामका अट्ठावीसवां अधिकार समाप्त ।। (२६) हानि अधिकार जब क्षयक मनोज्ञ आहारमें आसक्त होता है तब आचार्य उस आसक्तिसे होने वाली हानिको बताते हैं प्राय और अपाय अर्थात् इन्द्रिय संयमका विनाश और असंयमकी प्राप्ति को जानने और क्षपकको दिखलाने में जो विशारद हैं ऐसे आचार्य क्षपकके उस आसक्ति
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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