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________________ निर्यापकादि अधिकार [ २१३ छंद उपजातिभवन्ति येषां गुणिनः सहाया, विघ्न विना ते बवते समाधि । समाधिदानोद्यतमानसंस्ते, ग्राह्याः प्रयत्नेन ततो गणेन्द्राः ।।७१८।। इति निर्यापकः । अप्रकाश्य विषाहारं, त्याज्यते क्षपको यदि । तदोत्सुफः स कुत्रापि, विशिष्टे जायतेऽशने ॥७१६।। ततः कृत्या मनोज्ञानामाहाराणां प्रकाशना । सर्वथा कारयिष्याति त्रिविधाहारमोचनम् ॥७२०।। करिषद् दृष्ट्वा तदेतेन, तीरं प्राप्तस्य किं मप । इति वैराग्यमापन्नः, संवेगमबगाहते ॥२१॥ आस्वाध कश्चिदेतेन तीरं प्राप्तस्य कि मम । इति वैराग्यमापन्नः संवेगमवगाहते ॥२२॥ जिनके गुणवान् मनि सहायक होते हैं, वे सहायक क्षपकको विघ्न बाधाके बिना समाधि देते हैं । अतः समाधिदान में उद्यत मनबाले मुनियों द्वारा प्रयत्नसे निर्यापक आचार्य ग्रहण करने चाहिये ।।७१८॥ (२७) इति निर्यापक अधिकार समाप्त (२८) प्रकाशन अधिकार ___ यदि क्षपकसे तीन प्रकारके आहारको (अन्न, स्वाद्य, लेह्य) बिना दिखाये त्याग कराया जाता है तो उस समाधिस्थ क्षपककी किसी विशिष्ट भोजन में उत्सुकता बनी रह सकती है ।।७१९।। इसलिये निर्यापक आचार्य द्वारा सुदर सुदर आहारों को क्षपकके लिये दिखाना चाहिये, फिर सर्वथा यावज्जीव तीन प्रकार के आहारका त्याग कराना चाहिये ।।७२०।। निर्यापक द्वारा मनोहर आहार दिखा देनेपर कोई क्षपक विचार करता है कि अहो ! आयुका किनारा जिसके आ चुका है ऐसे मुझे अब इस आहारसे क्या प्रयोजन है ? मुझे इसका त्याग करना चाहिये । इसतरह वैराग्य भाव वाला क्षपक संवेग को, संसार भीरुताको प्राप्त होता है ।।७२१॥ ____कोई क्षपक दिखाये गये उक्त आहार का स्वाद लेकर पुनः विचार करता है कि आयुके तटपर पहुँचे हुए मुझे इस आहारसे क्या मतलब है इसतरह सोचकर वैराग्य
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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