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मरणकण्डिका तस्यासंवृतवाक्यानां, न पावें देयमासितु । घचनरसमाधानं, तबीयर्जायते यतः ॥७१४॥ गीतार्थैरपि नो कृत्या, स्त्रोसक्तार्थायिका कथा । पालोचनादिकं काय, तत्राति मधुराक्षरम् ॥७१५॥ प्रत्याख्यानोपदेशादौ, सर्वत्रापि प्रयोजने । क्षपकेण विधातव्यः, प्रमारणं सूरिराश्रितः ॥७१६।। तेन तैलाविना कार्या, गण्डूषाः सन्त्यनेकशः । जिह्वावदनकर्णादे, नर्मल्यं जायते ततः ॥७१७॥
--- --.-. -- - क्षपकके निकट कल कल बचन, लोक विरुद्ध वचन. निरर्गल वचन आदिको बोलने वाले लोगोंको ठहरने नहीं देना चाहिये क्योंकि उन वचनों द्वारा क्षपकको अशांति होती है ।।७१४।।
आगमार्थके ज्ञाता मुनियोंको भी क्षपक के समीप स्त्रोमें आसक्तिकारक कथा प्रर्थकथा आदि कुकथाएँ नहीं करनी चाहिये। उसके पास तो अति मधुर वाणीसे आलोचना आदिकी कथा करनी चाहिये अर्थात् अमुक अमुक मुनिने इसतरह शुद्ध आलोचना की है इत्यादि रूप धर्मबर्द्धक कथा करना योग्य है ॥७१५।।
प्रत्याख्यान, उपदेश आदि सभी प्रयोजनमें क्षपकको आचार्यको प्रमाण मानना होता है ।।७१६॥
भावार्थ---क्षपक मुनि प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, उपदेश सुनना आदि कार्यों को निर्यापक आचार्यके आज्ञाके अनुसार करता है, तीन प्रकारके आहारका त्याग आदि भी उनको प्राज्ञानुसार करता है।
आहारका त्याग करनेपर कृश हुए क्षपकको तैल त्रिफला आदिसे अनेक बार कुल्ला कराना चाहिये, जिससे उसके जीभ, मुख, कान आदिको निर्मलता होतो है अर्थात अनेक तरह की औषधि या तैलसे कुल्ला करानेसे जीभ साफ होती है, बोलने की शक्ति आती है ! कान में तेल डालनेस सुननेको शक्ति बनो रहती है ॥७१७।।