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________________ निर्यापकादि अधिकार श्रुत्वा सल्लेखनां सर्वे, रागन्तव्यं तपोषनः । कारितां शुद्धवृत्तेन, भजनोयमतोऽन्यथा ॥७०६॥ एति सल्लेखनामूलं, भक्तितो यो महामनाः । स निस्यमानुते स्थानं, भुक्त्वा भोग परंपराः ।।७१०॥ एक हानि होगी, जियते अः समाधिना । अकल्मषः स निर्वाणं, सप्ताष्टलभते भवः ॥७११॥ यो नैति परया भक्त्या, श्रुत्वोत्तमार्थ साधनम् । उत्तमार्थमृतौ तस्य, जन्तोभक्तिः कुतस्तनो ॥७१२॥ उत्तमार्थमृतौ यस्य, भक्तिस्ति शरीरिणः । उसमार्थमृतिस्तस्य, मृतौ संपद्यते कुतः ७१३॥ -..--. -------- समाधि कार्य संपन्न होता है तो सर्व मुनि अवश्य आते हैं और शिथिलाचारी द्वारा समाधि सम्पन्न हो रही है तो भजनीय है, जावे अथवा नहीं जावे ।।७०८॥७०६।। ___ योग्य आचार्य द्वारा क्षपककी सल्लेखना हो रही सुनकर जो महामना भक्तिसे क्षपकके निकट आता है वह स्वर्गकी भोग परंपराको भोगकर शाश्वत मोक्ष स्थानको प्राप्त कर लेता है ।।७१०।। जो जोव एक जन्ममें समाधि द्वारा मरण करता है वह निर्दोष क्षपक सात पाठ भवों द्वारा निर्वाणको प्राप्त करता है ।।७११।। जो पुरुष किसी क्षपक द्वारा उत्तमार्थ साधन-समाधिमरण किया जा रहा सुनकर परम भक्तिसे क्षपकके समीप नहीं जाता (उनको सेवा भक्ति दर्शन नहीं करता) उस जीवके समाधिमरणमें भक्ति कैसो कहाँसे होगी ? अर्थात नहीं होगी ॥७१२॥ जिस जीवके उत्तमार्थ मरण में भक्ति नहीं है उस जोवके उत्तमार्थ मरण मरणकालमें कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता । अर्थात् जो क्षपकके सल्लेखनाको देखता है, हापसे सेवा करता है, भक्ति पूर्वक क्षपकको वंदना करता है उसका सल्लेखना मरण अवश्य होता है। जो ऐसा नहीं करता उसका समाधि पूर्वक मरण नहीं होता ।।७१३॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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