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मरणण्डिका
।।७०६ ॥
क्षपकस्यात्मनो वास्ति त्यागतो व्यसनं परम् । भवेत्ततोऽसमाधानं, क्षपकस्यात्मनोऽपि वा ॥७०५॥ क्षुधादिपीडितः शून्ये, सेवते याचते यतः । क्षपकः फिचनाकल्पं, दुर्मोचम- यशस्ततः यतोsसमाधिनामृत्युं याति निर्यापकं विना । क्षपको दुर्गति भीमां, दुःखदां लभते ततः ॥ ७०७ ।। संघस्य, कञ्चन प्रेषयेत्ततः । निर्यापकगणेशिना ॥७०८ ॥
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संन्यास सूचकाचार्यो,
यदि सेवामें तत्पर है तो दूसरा अपने आहारादि कार्योंको कर लेगा और दूसरा क्षपकके निकट सेवामें संलग्न है तो पहला आहारादि अपनी क्रिया कर लेगा इससे क्षपक निर्यापक और प्रवचन तीनोंकी सुरक्षा होती है ।
क्षपत्रके अथवा अपने त्यागसे क्षपकको अथवा अपनेको महाकष्ट होता है और उससे क्षपक अथवा निजको अशांति पैदा होती है ।। ७०५ ।।
जब क्षपकका त्याग होगा अर्थात् निर्यापक अपने आहारादि कार्य में लगेगा अकेला क्षपक भूख प्याससे पीड़ित हुआ कुछ भी अयोग्य महारादि को मांगने लगता है और उससे महान् अपयश होगा ।।७०६ ।।
भावार्थ - यदि क्षपकको छोड़ निर्यापक आहारार्थं बाहर जायेगा तो अकेला क्षपक कुछ भी अयोग्य कार्य वेदना के वशीभूत हुआ करेगा अथवा मिथ्यादृष्टि के पास जाकर आहारादिकी याचना करेगा इससे धर्मकी और क्षपकको महान अपकीर्ति होती है ।
frared बिना क्षपक अशांति से मृत्युको प्राप्त होता है और अशांति से मरण करने से भयानक दुःखदायक दुर्गति में जाता है ।। ७०७ ।।
क्षपके समाधिमरणकी सूचना देनेवाला कोई आचार्य चतुविध संघके निकट समाधिकी सूचना भेजता है तब निरतिचार रत्नत्रयका पालन करनेवाले निर्यापक आचार्य द्वारा क्षपक की समाधि की जा रही है ऐसा सुनकर सभी मुनियोंको वहां आना चाहिये और यदि मंद चारित्रवाला समाधि कराता है ऐसा ज्ञात होता है तो अन्य साधु aure निकट आते हैं अथवा नहीं आते हैं । भाव यह है कि निर्दोष आचार्य द्वारा