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'निर्यापकादि अधिकार
[ २०९ आत्मा त्यक्तः परं शास्त्रं, एकोनिर्यापको यदि । असमाधेमृतिय॑क्त, यमसो दुर्गतिः परा ॥७०२॥ भिक्षाविषधानेन, क्षपकप्रतिकर्मणा । अनारतं प्रसक्तन, स्वस्त्यतोऽन्यो विपर्ययः ॥७०३।। स्वस्यापरस्य वा त्यागे, यतिधर्मो निराकृतः । ततः प्रवचनत्यागो, ज्ञानविच्छेदको मत: ॥७०४।।
. -. .- .- . . ..- - समाधिमें उद्यत क्षपकको परिचर्यामें दो से कम निर्यापक होवे तो स्वयं निर्यापकको आत्माका क्षपकका और प्रवचनका त्याग हो जाता है। अकेला निर्यापक क्षपकको समाधान शांति नहीं करा सकेगा और उससे उसको असधिो मन हो जाती है, यह तो प्रत्यक्ष हो हो जाता है और असमाधिसे मरा क्षपक दुर्गति में जाता है।।७०२।।
अकेला निर्यापक यदि क्षपकको सेवा, आहार, मल, त्याग आदि कार्यों में सतत लगा रहेगा तो अपने आहार ग्रहण करना, विश्राम लेना आदिको नहीं कर सकेगा अतः स्वयंका त्याग हुआ अर्थात् स्वयं वेदनासे पोड़ित होगा और यदि निर्यापक अपने आहार आदिमें लगेगा तो क्षपकको सेवा नहीं होने से उसका त्याग होगा ।।७०३।।
__इस तरह अपना अथवा क्षपकका त्याग होनेसे मुनिधर्मका नाश हआ क्योंकि जब निर्यापक और क्षपकका अशांतिसे मरण होगा तो मुनिधर्मका नाश हआ है और उससे प्रवचन का भी नाश हुआ, क्योंकि मुनिके अभावमें शास्त्रज्ञान कहां रहेगा ? समाप्त ही होगा ।।७०४।।
भावार्थ--क्षपकको सेवामें हानि होनेसे वह संक्लेश परिणामसे मरेगा उमसे उसको कुगति हुई सो क्षपकका नाश हुआ, क्षपकके अशांतिसे मरण होनेसे निर्यापक को महान् क्लेश होगा । यदि निर्यापक अपने आहारादिमें लगा रहेगा तो वैयावत्य धर्म का निर्यापक द्वारा त्याग हो जाता है। यदि वैयावत्यमें ही सदा लगा रहता है तो निर्यापक आहारादिके अभाव में मृत्युको प्राप्त होता है, निर्यापक आगमका महान् ज्ञाता होता है उसकी मृत्यु होनेसे शास्त्रोंका ज्ञान लुप्त हुआ, उपदेश का भी अभाव होगा इसतरह प्रक्वनका अभाव हो जाता है । अतः कभी भी एक निर्यापक क्षपक के समाधिके लिये ग्रहण नहीं किये जाते, कमसे कम दो ग्रहण किये जाते हैं जिससे एक निर्यापक