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________________ २०६ ] चत्वारो वादिनोऽक्षोभ्याः सर्वशास्त्रविशारदाः । धर्मवेशन रक्षार्थं, विचरन्ति समन्ततः १६६७।। एवमेकाग्र चेतस्काः, कर्मनिर्जरणोद्यताः । निर्यापिका महाभागाः सर्वे निर्यापयन्ति तं ।। ६६८ ।। कालानुसारतो प्राह्यश्चत्वारिंशच्चतुयुं ताः । भाविनो मुनिपुङ्गवाः ||६६६ ॥ चत्वारश्चश्या रस्ता व वंजसा । घरवारः काले संक्लेशसंकुले ॥७०० ।। भरत रावत क्षेत्र हेयाः क्रमेण मरकण्डिका यावसिष्ठन्ति कालानुसारिणौ भरतंरावतक्षेत्र ग्राह्यौ द्वौ जघन्येन योगिनौ । भवौ निर्यापको यती ||७०१ ॥ सर्व शास्त्रों में निपुण, क्षोभरहित - किसी भी कारणसे जिन्हें उत्तेजना नहीं आती, जो बाद में कुशल हैं ऐसे चारवादी मुनिराज धर्मकथा को कहने वालेकी रक्षा हेतु धर्मं श्रवण मंडप के चारों ओर विचरण करते हैं ।। ६९७ ।। इसप्रकार ये अड़तालीस महाभाग, कर्मनिर्जरण में उद्यत एकाग्रचित्त हुए सभी निर्वाक उस क्षपकको संसारबंधन से निकालनेके लिये प्रयत्नशील रहते हैं ।।६९८ ।। काल परिवर्तन के अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्र में होनेवाले मुनिपुंगव चवालीस ग्रहण करने चाहिये ||६६६ || भावार्थ - भरत ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी आदि कालोंका परिवर्तन हुआ करता है तदनुसार वहांके मनुष्यों में गुणोंकी होनाधिकता होती है अतः सदा इतने उत्कृष्ट गुणवाले मूनि नहीं मिलते इसलिये मध्यम रीत्या चवालीस मध्यम गुणवाले मुनि निर्यापक रूपसे ग्रहण किये जाते हैं । . तथा संक्लेश बहुत कालमें जैसे जैसे हीन काल स्थिति होवे तदनुसार चार चार निर्यापकों की संख्या क्रमशः कम करना, ऐसे चार संख्या शेष रहने तक कर सकते हैं अर्थात् चार मुनियोंको भी निर्यापक बनाया जाता है । अत्यंत निकृष्ट कालमें भरत ऐरावत क्षेत्र में जघन्य रूपसे दो योगो निर्यापक पदरूपसे ग्रहण करने योग्य हैं ||७००||७०१ ।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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