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सल्लेखनादि अधिकार
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ममत्व कुरुते हित्वा यो राज्यं नगरं कुलम् ।
तस्य, संयमहीनस्य केवलं लिंगधारणम् ॥२६७।। एवं संयम शैथिल्येवोषानुद्धाव्य गणिनं गणरक्षायां नियुक्त -
त्वं कार्येष्वपरिस्रावी समदर्यखिलेष्वपि । भूत्त्वा विधानतो रक्ष बालवृद्धाकुलं गणम् । २६८।। प्रवज्प संयमध्वंसि दूराजमपराजकम् । न क्षेत्रमात्मनोनेन सेवनोयं कदाचन ॥२६॥ मावश्यके कृथा जातुप्रमादं वृत्तवर्धके ।।
विज्ञाय दुर्लभां बोधि निःसारेमानुषे भवे ॥३०॥
भावार्थ-जो मुनि स्वयं पंचाचारोंका निर्दोषपालक है, लौकिकसुख में आसक्त नहीं है वह आचार्य बन सकता है अन्यथा नहीं । क्योंकि जो शिथिल आचार वाला है वह अन्य साधुओंको निर्दोष चारित्र पालन नहीं करा सकता । लौकिक सुखगृहस्थ जसा यथेष्ट भोजन करना, मृदुशय्या पर शयन, सुन्दर घरमें निवास इत्यादि में जो आसक्त है वह आचार्य पदके योग्य कदापि नहीं है ।
जो पूर्व में राज्य, नगर एवं कुलको छोड़कर त्यागकर दीक्षित हुआ है और पुनः उन्हीं नगरादिमें यह मेरा है, इत्यादि रूप ममत्व करता है वह संयमरहित है उसका मुनि बनना तो केवल वेष धारण करना है ।।२६७।।
___ इसप्रकार पुराने आचार्य नवीन आचार्यको चारित्रमें शिथिल होनेसे लगने. वाले दोषों को दिखाकर उन्हें संघरक्षामें नियुक्त करते हैं
हे बालाचार्य ! यह गुरु अपरिस्रावो है ऐसा समझकर शिष्यगण तुम्हें अपना अपराध कहें तो उसको प्रगट मत करना । तुम सब कार्यों में समदर्शी होवो । बालबद्ध साधओंसे पूर्ण ऐसे संघकी तुम विधान पूर्वक रक्षा करना ॥२९८।।
जिस क्षेत्रमें दीक्षा लेनेवाले न हो, संयमका नाश होता हो जिसमें दुष्ट राजा हो अथवा जो देश राजा रहित हो उस क्षेत्रमें हे आचार्य ! तुम कभी भी नहीं रहना ।।२९९।।
___ संघस्थ साधुको शिक्षा देते हैं-भो मुनिगण ! चारित्रवर्द्धक ऐसे आवश्यकमें कभी भी प्रमाद नहीं करना, इस निःसार मनुष्य भवमें रत्नत्रय स्वरूप बोधिको दुर्लभ जानकर संयममें जागृत रहना ।।३००।