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________________ ९४ ] मरणकण्डिका संज्ञा गौरव रौद्रातं ध्यान कोपाषि वर्जिताः । समिता: पंचभा दिगतका ३०१॥ est दन्तिनो दुष्टान्विषयारण्य गामिनः t जिनवाक्यां कुशेनाशु वशे कुरुत यत्नतः ॥ ३०२ ॥ धन्यास्ते मानवा लोके मन्ये ये विषयाकुले । विचरंति तथाश्चतुरंगे निराकुलाः ||३०३ || विनीता गुरुशुश्रूषाकारिणश्चैस्य भक्तयः 1 वत्सला भवतध्याने, स्वाध्यायोधत चेतसः ||३०४ ॥ मास्म धर्मधुरं त्याक्षुरभिभूताः दुःसहै: कण्टकैस्तीक्ष्णं, प्रमियक परीषहः । वचोमयंः ॥ ३०५ ॥ सभी साधुयोंको आहार भय मैथुन परिग्रह इन चार संज्ञाओंसे रहित तीन गौरवोंसे एवं आर्त रौद्रध्यान तथा क्रोधादिसे रहित होना चाहिये । आप लोगोंको हमेशा ही तीन गुप्तियोंसे गुप्त और पंच समितियों युक्त होना चाहिये || ३०१ || हे साधुजन ! आप लोग प्रयत्नपूर्वक इन्द्रिय रूपी दुष्ट हाथी जो कि विषयरूपी वनमें घूमना चाहते हैं उन्हें जिनेन्द्रके वचनरूपी अंकुश द्वारा वश में करें ||३०२ ॥ पंचेन्द्रियोंके रूप शब्द आदि विषयोंसे संकुल इस जगत् में परिग्रहका त्याग करनेवाले साधुजन चार आराधनाओं में निराकुल होकर प्रवृत्ति करते हैं वे ही मानव धन्य हैं ऐसा मैं मानता हूँ ।। ३०३ || आप सभी साधुजन हमेशा अपनेसे रत्नत्रयधर्म अथवा दीक्षामें बड़े गुरुजनोंकी शुश्रूषा करनेवाले होवो | सदा जिनप्रतिमाओं की वंदना स्तुति भक्ति नमस्कार आदिमें उद्यत रहो। ध्यान में अनुराग करो अर्थात् प्रसन्न मनसे ध्यानका अभ्यास करो | स्वाध्यायमें मनको लगाओ ||३०४ ।। भो मुनिगण ! दुःसह परोषह द्वारा तीक्ष्ण कण्टक एवं ग्रामीण लोगों के कठोर वचनों द्वारा पीड़ित होकर घबराकर धर्मधुराको छोड़ नहीं देना || ३०५ ।। आबा सपश्चरण के लिये संघको प्रेरित करते हैं--जो तीर्थंकर प्रभु देवेन्द्र द्वारा गर्भकाल से पूजित होते हैं । दीक्षा लेते ही जिन्हें चार ज्ञान होते हैं अर्थात् गर्भसे
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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