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सल्लेखनादि अधिकार
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ध्र वसिद्धिश्चतु नस्तीर्थकृत त्रिदशाचितः । प्रनिगुह्य बलं वीर्यमुद्यतः कुरुते तपः ॥३०६॥ मुमुक्षूणां किमन्येषां, दुःखक्षपणकांक्षिणाम् । न फर्तव्यं तपो घोर, प्रत्यवायाकुले जने ॥३०७॥ शक्तितो भक्तितः संघ, वात्सलास्ते चतुर्विधे । वैयावृत्यकराः शचस्जिनाज्ञानिर्जराथिनः ॥३०८।। उपधीनां निषधायाः शय्यायाः प्रतिलेखनम् । उपकारोऽन्नभैषज्य मल त्यागादिगोचरः ॥३०६।। मार्गे घोरापगा राजदुभिक्ष मरकादिषु ।
वैयावृत्यं विधातव्यं, सरक्षासंग्रहं सदा ॥१०॥ मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान रहते हैं और संयमके धारते ही चौथा मनःपर्ययज्ञान प्रगट होता है ऐसा महापुरुष भो बल और वीर्य बिना छिपाये तपको उद्यमशील होकर करते हैं ।।३०६।।
तो फिर दुःखोंका क्षय करनेके इच्छुक अन्य मुमुक्षु जनोंको बात ही क्या है ? विघ्नोंसे भरे हुए इस लोकमें सामान्य मुनियोंको क्यों तप नहीं करना चाहिये ? अवश्य ही करना चाहिये । अर्थ यह है कि नियमसे जिनको मुक्ति होती है ऐसे तीर्थकर देव भी जब तप करते हैं तब अन्य मुनिजनोंको तो वह तप अवश्य करने योग्य है ।।३०७॥
बालवृद्ध मुनियोंसे युक्त इस चतुर्विध संघमें हे मुनिराजों ! तुम सदा शक्ति और भक्तिसे वैयावृत्य करनेवाले बनो । यह वयावृत्य तप निर्जराका कारण है अत: जिनेन्द्र देवको आज्ञाका पालन और कर्म निर्जराको सिद्धि के लिये आप वात्सल्य युक्त हो सतत वैयावृत्य करना ।।३०८।।
वैयावृत्य करनेको विधि आदिको बतलाते हैं---उपधि-पोछी कमंडलु, बैठने के स्थान आसन आदि, शय्या घास पट्ट इन सबका शोधन करके परस्पर साधुजनों में उपकार करना चाहिये । तथा उन मुनिश्वरोंको आहारको व्यवस्था रोगी मुनिके औषधको व्यवस्था, शौचादि सम्बन्धी व्यवस्था करना वेयावृत्य है ।।३०९।।।
_ विहार करते समय मार्गमें चौर द्वारा, नदीके निमित्त से, तथा राजा, दुमिक्ष इत्यादि कारणोंसे वतियोंको पीड़ा कष्ट होनेपर सदा ही वैयावृत्य करना योग्य है अर्थात् उनकी रक्षा करना उन्हें आश्रय देना चाहिये ।।३१०॥