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मरकांण्डका
समर्पो न विषले यो, यावृत्त्यं जिनाज्ञया । प्रप्रच्छाद्य बल बीर्यमतो निधर्मक सकः ॥३११॥ आज्ञाकोपो जिनेन्द्राणां, श्रुतधर्मविराधना । अनाचारः कृतस्तेन, स्वपरागमवर्जनम् ॥३१२।।
विशेषार्थ-मुनिराजोंके बैठनेके स्थान, उपकरण आदिका शोधन करना, मुनि के योग्य निर्दोष आहार औषधिसे उपकार करना, अशक्त रोगो मुनिका मल उठाना, साफ करना, धर्मका उपदेश देकर उनके परिणाम धर्ममें स्थिर करना, चलकर आनेपर परोंका दबाना, चौरसे, राजासे, नदीसे इत्यादि कारणोंसे उपद्रव आनेपर उन उपद्रवोंको विद्या आदिके बलसे दूर करना । दुभिक्ष देश से मुनिको सुभिक्ष देश में पहुंचा देना जिससे उन्हें आहार में बाधा नहीं आवे । पीडित मुनिको आप डरो मत ! हम सब आपके हैं इत्यादि प्रकारसे सांत्वना देना, सेवा करना, ऐसा उपदेश समाधिके इच्छुक आचार्य संघस्थ साधुओंको देते हैं ।
बैयाबृत्य नहीं करनेसे आने वाले दोष बताते हैं
अपने बलवीर्यको न छिपाकर जिनेन्द्रकी आज्ञासे समर्थ होकर भी जो साधु तप नहीं करता है उससे अन्य कौन अधार्मिक हो सकता है ? ॥३१॥
जो येयावृत्य नहीं करता उसके इतने दोष प्राप्त होते हैं—जिनेन्द्र की आज्ञा का उल्लंघन, श्रुतमें कहे हुए धर्मका नाश, अनाचार और अपना परका और आगमका त्याग ||३१२।।
विशेषार्थ-वैयावृत्य करना चाहिये ऐसी जिनेन्द्रको आज्ञा है अतः जो वैयावृत्य नहीं करता है उसको आज्ञा भंग नामका दूषण आता है वैयावृत्य करनेवाले नहीं होंगे तो मुनिजन मुनिधर्मका पालन नहीं कर सकते, इसतरह शास्त्रोक्त धर्मको विराधना होती है । धेयावृत्य रूप तप आचार बताया है जिसने इस कार्यको नहीं किया उसके अनाचार दोष भी हुआ । वैयावत्य नहीं किया जाय तो अपना तप नष्ट हा क्योंकि वयावृत्य तप ही है, उसको नहीं करनेसे संकटग्रस्त रोगी मुनिका त्याग ही हआ समझना चाहिये । आगममें वैयावृत्य करने की आज्ञा है उसको हमने नहीं किया अतः आगमका भी त्याग हुआ इसतरह अनेक दोष वैयावृत्य नहीं करनेसे आया करते हैं ।