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________________ सल्लेखनादि अधिकार [ ९७ गधे-गुणपरिणाम, श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्रलाभ, संधान, तपःपूजा, तीर्थाविपिछत्ति, समाधि, जिनाज्ञा, संग्रम साहाय्य, दान, निधिचिकित्सा, प्रभावना, संघकार्याणि, वैयावृत्यगुणाः । . बहते सकलो लोको, महता मोहवलिना । धाधगित्येष कुर्वाणो, महावेदनया स्फुटम् ॥३१३॥ तत्र विध्यापिते सद्यो, मूयसा ज्ञानपाथसा । मग्ना वमपयोराशौ, सुखायंते तपोधनाः ॥३१४॥ निगृहीसेन्द्रियतारः सर्वचेष्टासमाहितः । धन्येस्तपः समोरेण धूयन्ते कर्मरेणवः ॥३१॥ इस्यं गुणपरीणामो, विद्यते यस्य निश्चितः । साधूनां भव्यबन्धूनां, वैयावृत्यं तनोतियः ॥३१६॥ वयावृत्यके अठारह गुण बताते हैं-गुणपरिणाम, श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्र लाभ, संधान, तप, पूजा, तीर्थ अविच्छित्ति, समाधि, जिनाज्ञा, संयमसहाय, दान, निर्विचित्किसा, प्रभावना और संघकार्य ।. इनमें से गुणपरिणामको कहते हैं यह सम्पूर्ण विश्व धग धग करता हुआ महावेदनासे प्रगट हुई बड़ी भारी मोहरूपी अग्निद्वारा जल रहा है ।।३१३।। उस मोहरूपी अग्निको विशाल ज्ञानरूपी जल द्वारा तत्काल बुझा देनेपर दमइन्द्रियदमन रूपी महासागर में मग्न हुए तपोधन साधु सुखी हो जाते हैं ।।३१४।। ___ सब चेष्टायें जिनमें समाहित हैं ऐसे इन्द्रिय द्वारोंको रोकने वाले अन्य पुरुषों द्वारा तपरूपी वायुसे कर्मधूलि उड़ायी जाती है ।।३१५।। इसप्रकारके गुणके परिणाम उसके नियमसे होते हैं जो भव्यजीवोंके बंधुस्वरूप साधुजनोंको बयावृत्य करता है ॥३१६।। जैसे जैसे रात दिन साधुका गुण परिणाम बढ़ता है वैसे वैसे जिनेन्द्रदेवके शासनमें उत्कृष्ट श्रद्धा वृद्धिंगत होती है ।।३१७।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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