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मरणकण्डिका
यथा यथाऽनिशं साधोवर्धते गुणवासना । जिनेशशासने श्रद्धा, परोदेति तथा तथा ॥३१७॥ विनागुणपरीणामं वयावत्यं करोति नो। यतस्ततो मुमुक्षणां, यावृत्यं व्यनक्ति सः ॥३१॥ प्रवद्धधर्मसंवेगः, श्रद्धया वर्धमानया । यतिः करोति वात्सल्यं, लोकद्वयसुखप्रयम् ।।३१६।। भक्तिरर्हत्सु सिद्धषु, धर्मसूरिष साधुषु । वैयावत्यकृतोत्कृष्टा, पूजा भवति सेविता ॥३२०॥ प्रहबूक्तिः परा यस्य, विभीते भवतो न सः । येनावमाहिता गंगा, स किं नश्यति वलितः ॥३२॥
श्रद्धाके बढ़नेपर सम्यक्त्वका वात्सल्य गुण होता है ऐसा कहते हैं
जिस कारणसे गुणपरिणामके बिना मुमुक्षुओंके वैयावृत्यको नहीं करता उस कारणसे गुणपरिणाम वैयावृत्यको व्यक्त करता है ऐसा समझना चाहिये। बढ़ती हुई श्रद्धाके द्वारा वृद्धिंगत हुआ है संवेगभाव जिसके ऐसा साधु इस लोक और परलोक में सुखदायक ऐसे वात्सल्यको करता है ।।३१८॥३१९।।
भावार्थ---यह विश्व मोह अग्निसे जल रहा है, दुःखी हो रहा है । उसका यह मोह संताप ज्ञानरूप जल द्वारा ही नष्ट हो सकता है इत्यादि रूप परिणाम गुण परिणाम कहलाते हैं । भक्ति ---
जिसने वैयावृत्य किया है समझना चाहिये कि उसने समस्त अर्हन्त परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी तथा साधु परमेष्ठी इन सबमें परमोत्कृष्ट भक्ति की है उनकी पूजा की है ।।३२०।।
जिस पुरुषके उत्कृष्ट जिनेन्द्रप्रभुकी भक्ति विद्यमान है उसको संसारका भय नहीं होता, अथवा जो जिनदेवकी भक्ति करता है उसका संसारभ्रमण नष्ट हो जाता है जिसने गंगानदीमें अवगाहन किया है क्या वह अग्निसंतापसे छूट नहीं जाता ? अवश्य छूटता है ।।३२१॥