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सल्लेखनादि अधिकार
संसार भोरतोत्पन्ना, निःशल्या मंदराचला । जिनभक्ति डा यस्य, नास्तितस्य भवाबूयं ॥३२२॥ निःकषायो यतिन्तिः पात्रभूतो गुरपाकरः । महावतधरो धीरो, लभते श्रुतसागरम् ॥३२३॥ दर्शनज्ञानचारित्र, संधानं क्रियते यतः । रत्नत्रयात्मके मार्ग, स्थाप्येते स्वपरौ ततः ॥३२४॥
जिस पुरुषके संसारके संवेगसे उत्पन्न हुई तथा माया आदि निदान से रहित मंदर मेरुवत् निश्चल ऐसी अर्हन्तको दृढ़ भक्ति मौजूद है उसके संसारभ्रमणके भयका अस्तित्व नहीं है अर्थात् भक्ति करनेवाला सम्यक्त्वो शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ॥३२२॥
पात्र लाभ नामके गुणको कहते हैं
कषाय रहित इन्द्रियको वश करनेवाला गुणोंका आकर महाव्रतधारी धोर ऐसा मुनि पात्रभूत हुआ श्रुतसागरको प्राप्त करता है ।।३२३॥
भावार्थ-पात्र लाभ एक वयावृत्यका गुण है इसके दो अर्थ संभव हैं एक तो जो वैयावृत्य करता है वह स्वयं पात्रभूत होता है अर्थात् जैसे पात्र अनेक वस्तुओंके रखनेका आधार होता है वैसे ही वैयावृत्य-सेवा करनेवाला कषायोंका शमन, इन्द्रियोंका दमन, धैर्य शास्त्रोंमें पारंगतपना इत्यादि गुणोंका स्वय पात्र होता है ये गुण उसका आश्रय लेते हैं। दूसरा अर्थ यह है कि जो वैयावृत्य करता है उस साधुको कषायोंका शमन करनेवाला, इन्द्रियोंका दमन करनेवाला महान शास्त्रज्ञानी ऐसा अन्य विशिष्ट साधु प्राप्त होता है । इसप्रकार पात्रलाभ गुणका कथन समझना चाहिये । संघान गुण
जिससे दर्शन ज्ञान चारित्रका संधान किया जाता है रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग में अपनेको और परको स्थापित किया जाता है उसकारण इस गुणको संघान यह नाम दिया है अर्थात् किसी कारणवश सम्यग्दर्शन आदि छिन्न हुए हों उन्हें पुनः अपने और परके आत्मामें जोड़ा जाता है उसको संधान कहते हैं ॥३२४।।
भावार्थ-संघान जोड़को कहते हैं । जो चीज टूट जाती है उसे किसी उपायसे जोड़ा जाता है यहाँपर रोग आदिसे रत्नत्रयमें शिथिलता आकर वह आत्मासे टूट जाता