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________________ १०० ] मरणकण्डिका वैयावृत्यं तपोऽन्तस्थं, कुर्वतानुत्तरं मुगा । धेदनाश्चापदापारा, भिचंते कर्मभूधराः ॥३२५॥ श्रेषा विशुद्धचितेन, कालत्रितपवर्तिनः । सर्वतीर्थकृतः सिद्धाः, साधयः संति पूजिताः ॥३२६॥ है तो वैयावृत्य द्वारा रोग दूर कर उस रोगग्रस्त साधुका रत्नत्रय पुनः जोड़ा जाता है अतः वैयावृत्यमें "संधान" नामका गुण निवास करता है । तपगृण हर्षपूर्वक वैयावृत्य नामके अभ्यन्तर तपको करनेवाले साधुके आपत्तिकी आधारभूत वेदना समाप्त होती है तथा कर्मरूपी पर्वत भी छिन्न भिन्न हो जाते हैं। अर्थात् रोगजन्य वेदना समाप्त होती है और कर्मोकी महान् निर्जरा होती है ।।३२५॥ भावार्थ-तपश्चरणसे कर्मनिर्जरा होती है, वैयावृत्य स्वयं एक अंतरंग तप है, इस तपसे दो लाभ हैं एक तो जिसकी वैयावत्य की उसकी रोग वेदना शांत होती है और दूसरा लाभ स्वयं की कर्मनिर्जरा होती है । अन्य उपवास आदि तपसे तो केवल अपने कर्मोंकी निर्जरारूप एक ही लाभ है किन्तु वैयावृत्य करनेसे स्वका तथा परका लाभ है यह इस गुणका तात्पर्य है । पूजागुण जिसने वैयावृत्य किया उसने विशुद्ध चित्तसे तीनकालके सभी तीर्थंकर सभी सिद्ध एवं साधु परमेष्ठीको अर्चना की ऐसा समझना चाहिये ।।३२६।। भावार्थ-वैयावत्य करना चाहिये ऐसी तीर्थकर देव आदिकी आज्ञा है और जो आज्ञाका पालन करना है वही उनकी अर्चना है। यदि आज्ञाका पालन तो न करे और पूजा आरती उतारे तो बह पूजा नहीं है । लोक व्यवहारमें भी देखा जाता है कि जो व्यक्ति माता-पिता गुरुजनको आज्ञाका उल्लंघन करता है और केवल नमस्कारादि करता है तो उसे वास्तव में गुरुजनोंका आदर करनेवाला नहीं मानते हैं। वैसे ही तीर्थकर प्रभुकी आज्ञाका पालन ही उनकी पूजन है । आज्ञापालनके बिना वह पूजन अर्चन अधूरी है या व्यर्थ है।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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